काशी में गंगा बेहद सुरीली है। गंगा की भोर वैदिक छंदों का लालित्य बिखेरता है। लाली फूटती है तो कपासी बादलों पर सुनहली आभा की पैजनी बजने लगती है। धुंध की सलवटों में लिपटी गंगा में सुगबुगी उठने लगती है। एक तरफ कबूतरों के पंख फड़फड़ाते हैं तो दूसरी ओर, गंगा की लहरों पर मचलती नौकाएं सन्नाटे को चीरती हैं। अंधकार के नेपथ्य से सुनहरी किरणों गहरी हलचल वातावरण को पुलकित और पल्लवित कर देता है। गंगा के शांत जल में जब हिलोरें उठती हैं तो कोई चिन्मय पुलक सौंदर्य को शिवत्व से जोड़ती हुई बिखर जाती है।
बनारस सुबह का शहर है। मानवीय चेतना में सूर्योदय का शहर। सुबह के शहर में होने के साथ, हर किसी की साध है। गंगा के किनारे हमारी चेतना का एक धरातल है, जहां जागरण का सूर्योदर शंख बजाता है। घंटा-घड़ियाल बजाता है। जीने का यह सुख जीने के लिए कम नहीं है।
अष्टकूप और नौ बावलियों का नगर बनारस गंगाजल और पवित्र कुंडों में ललका गमछा लपेटकर नहाता है। सुबह अखाड़े में कुश्ती लड़ने के बाद नहाता है। शरीर पर कड़ुआ तेल लगाकर नहाता है। सिर की मालिश से दिमाग के तंतुओं को सचेत करके नहाता है। इतवार और बुध को हजामत बनाकर नहाता है। फिल्मी गाना नहीं, हर-हर गंगे का मंत्रोच्चारण करते हुए नहाता रहा है। किंवदंती है कि सदियों पहले गंगा घाटों पर नहाने वालों की विभूति देखकर यमराज के दूत तक भाग खड़े होते थे। पिशाच भाग खड़े होते थे। बलाएं भाग खड़ी होती थीं।
बनारस और गंगा की बात की जाए तो मणिकर्णिका घाट का रहस्य जाने बगैर ज्ञान अधूरा ही रह जाएगा। वही मणिकर्णिका घाट जहां हजारों साल से पार्थिव शरीर जलते आ रहे हैं। कभी न खत्म होने वाली जंजीर की तरह। धू-धूकर जलती रहती है आग। अलग-अलग चिताओं पर कई लाशें। जलने के लिए पड़ी रहती हैं लाशें अपनी बारी की प्रतीक्षा में। नई –नई अर्थियां। कोई लाल तो कोई सफेद कपड़ों में लिपटी। नारा नहीं, हलचल नहीं, शोक नहीं, शोर नहीं।
बनारस में मोक्ष की लालसा लेकर दुनिया भर के लोग दौड़ते हुए चले आते हैं। लगाता है बनारस में सचमुच स्वर्ग में जाने के लिए कोई सीढ़ी लगी है। मोक्ष की वह सीढ़ी जिसके रहस्य को न कबीर समझ पाए, न तुलसीदास। हम तो सिर्फ इतना समझ पाए हैं कि अगर मौत पर यह शहर रोने लगे तो रूदन का क्रम कभी टूटेगा ही नहीं। न घंटे घड़ियालों ध्वनि सुनाई देगी और न मंदिरों का मंत्रोच्चार। फिर कहां जाएंगे काशी के मठों-धर्मशालाओं में मौत का इंतजार कर रहे दुनिया भर के हजारों लोग। बनारस में भीड़-भड़क्का देखकर तो यही लगता है कि बनारस कोई शहर नहीं, यह स्वर्ग यात्रा का वेटिंग रूम है। बनारस की पेंचदार गलियों से होकर गंगा घाटों तक कौन सी सीढ़ी स्वर्ग की ओर ले जाती है, इसे न पंडे-पुरोहित बता पाते हैं, न चीलम फूंकते औघड़।
हम तो सिर्फ इतना जानते हैं कि मौत के प्रतीक्षार्थियों की नगरी बनारस में आने वाले हर किसी की चाहत होती है धनकुबेर बनने की। दूसरी ख्वाहिश होती है स्वर्ग में अच्छी सीट कब्जाने की। चूड़ी, चूनर, चूरन, चना-चबैना बेचने वालों से लेकर आत्माओं को तारने का ठेका लेने वाले लोगों की जेब तराशने के लिए यहां नित नए फर्मूले आजमाए जाते हैं। तीर्थ यात्रियों और सैलानियों की जेबें तराशते-तराशते एक दूसरे की जेबें काटने और कटवाने लगते हैं। आस्था, विश्वास, ठग विद्या, माया, तीर्थ, रांड़, सांड़, सीढ़ी, सन्यासी, गंजेड़ी-भंगेड़ी, पोंगापंथी, गुरु, गुंडा, आखिर क्या है बनारस की संस्कृति। शायद इस शहर को समझ पाना कठिन है कि कौन ठग रहा है और कौन ठगा जा रहा है। लोग तो सिर्फ यही समझाते हैं— रांड़, साड़, सीढ़ी, सन्यासी इनसे बचे सो सेवै काशी।
इनसे बच भी गए तो जाम के झाम से कौन बचाएगा। बनारस के ठगों से कौन बचाएगा। पैसे के बदले मोक्ष दिलाने का ठेका लेने वाले पंडों और डोमों से कौन बचाएगा।
घुमक्कड़ों का झुंड रोज बनारस पहुंचता है। देशी-विदेशी सैलानियों की बीबियां गंगा में नावों पर बैठकर बनारस के शरीर का अंग-अंग अपनी नीति-रीति से उघाड़ती हैं। मंदिरों की धक्का-मुक्की और भिखारियों के रेले को कैमरे में कैद करती हैं। बनारस के ठगहारे गाइड भी कम नहीं। विदेशी मेमों को बनारस की रवायत समझाते हैं तो वो घुटने टेक देती हैं।
दुनिया मानती है कि बनारस में योगी शिव है। भोगी भी शिव है। शिवत्व योग साधता है। भोग साधता है। तभी तो कोई बनारसी गंगा का साथ नहीं छोड़ना चाहता। दुनिया भर के लोगों की बाबा विश्वनाथ की नगरी से श्रद्धा घट नहीं सकती। जिन्हें बनारस के मुहब्बत है वे मानते हैं— चना, चबेना गंग जल, जो पुरवे करतार काशी कबहू ना छोड़िए विश्वनाथ दरबार।
खांटी बनारसी जहां भी रहते हैं, बनारस में रहते हैं। जहां रहते हैं बनारस रहता है। अद्भुत है बनारस। कभी बनारस का होना सपने के सच होने जैसा लगता है। कभी सरल लगता है। कभी विरल लगता है। बनारस की गंगा कभी सुलभ लगती है, कभी सुगम लगती है। बनारस कभी अलग लगाता है, कभी अगम लगता है। भावनाओं और संभावनाओं का अद्भुत सम्मिश्रण लगता है। बनारस की एक काया है। बनारस की एक छाया है। वह हर काया में है जो असीम चेतना की दस्तक देती है।
बनारस जितना मूर्त है, उससे कहीं अधिक अमूर्त है। पुराण से भी पुराना है। पुराना के साथ नया भी है। बनारस एक परंपरा है। एक जीवन शैली है। बनारस में काव्य रस की तरह जीवन है। भाषा में भी है और भाषा से बाहर भी है। रहस्य, रोमांच, सांड़ के साथ सन्यासी एक दूसरे का स्वागत करने के लिए हर समय तत्पर नजर आते हैं।