संवेदना, सृजन और संकल्प का संगम बना “मेरा शहर” का समावेशी कार्यक्रम

इंसानियत ने प्रकृति को प्रेमपूर्वक पुकारा, कला ने चेतना को आवाज़ दी और संवाद ने सह-अस्तित्व का रास्ता दिखाया…!
विशेष संवाददाता
वाराणसी। विश्व पर्यावरण सप्ताह के अवसर पर वाराणसी की पावन धरती पर जब कला, संवेदना और चेतना एक साथ प्रकट हुईं, तो न केवल मंच पर रचनात्मक ऊर्जा फूटी, बल्कि दर्शकों के हृदयों में पर्यावरण संरक्षण और सामाजिक समरसता के बीज भी बोए गए। यह दृश्य था सामाजिक संस्था “मेरा शहर” द्वारा आयोजित तीसरे समावेशी सांस्कृतिक कार्यक्रम का, जो शनिवार को सेठ आनंदराम जयपुरिया स्कूल के परिसर में संपन्न हुआ। यह केवल एक कार्यक्रम नहीं था, यह एक ऐसा पल था जहां इंसानियत ने प्रकृति को प्रेमपूर्वक पुकारा, कला ने चेतना को आवाज़ दी, और संवाद ने सह-अस्तित्व का रास्ता दिखाया।
कार्यक्रम की शुरुआत जिस ओपन माइक सत्र से हुई, उसने यह साफ कर दिया कि भावनाओं की कोई उम्र नहीं होती। छोटे-छोटे बच्चों से लेकर अनुभवों से भरे बुज़ुर्गों तक, हर किसी ने अपनी कविता, गीत, विचारों और व्याख्यान के ज़रिए प्रकृति से जुड़ाव, चिंता और आशा को शब्दों में ढाला। किसी ने धरती मां को बचाने की पुकार की, तो किसी ने गगनचुंबी इमारतों के साये में सिसकती नदियों की बात कही।

इसके बाद कार्यक्रम में रंगारंग प्रस्तुतियों का सिलसिला शुरू हुआ। प्राची तिवारी, आकाश, प्रगति बिंद, मोनिका विश्वकर्मा के मनमोहक नृत्य और दीपक कुमार, काज़ी अख्तर, ऋषि और स्मार्ट लालू की गायन एवं रैप प्रस्तुतियों ने दर्शकों को झूमने और सोचने पर मजबूर कर दिया। रैप के माध्यम से युवाओं ने पर्यावरण और सामाजिक मुद्दों पर अपनी बात दमदार तरीके से रखी – एक ऐसा माध्यम जो आज की पीढ़ी से सीधा जुड़ता है।
कवि ईशान ने अपनी कविता में कहा, “धरती कोई संसाधन नहीं, मां है – और मां को बचाना सिर्फ धर्म नहीं, जीवन का आधार है।” यह पंक्ति जैसे पूरे कार्यक्रम का सार बन गई। आरंभ एकेडमी के विद्यार्थियों ने मार्शल आर्ट्स प्रदर्शन के माध्यम से आत्मरक्षा, अनुशासन और मानसिक संतुलन का संदेश दिया। यह प्रस्तुति विशेषकर युवाओं के लिए प्रेरणादायक रही, जो केवल शारीरिक प्रशिक्षण ही नहीं, आत्मबल और आत्मविश्वास का प्रतीक भी थी।

चित्रकला प्रदर्शनी में आकांक्षा, काजल, अनुराधा, अलिश्बा अंसारी, रिम्मी जायसवाल, विनीता, अमरजीत और आर्यन की पेंटिंग्स ने दर्शकों को सोचने पर विवश कर दिया। जलवायु परिवर्तन, वनों की कटाई, प्रदूषण, और मानव-प्रकृति के संबंधों को लेकर बनाई गई इन कलाकृतियों में जहां समस्याओं की भयावहता थी, वहीं एक आशा की झलक भी – जैसे हर पेंटिंग कह रही हो, “हम अभी भी कुछ कर सकते हैं।”

गढ़ा नहीं जाता कला-साहित्य
इस अवसर पर बनारस के वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक विजय विनीत ने कहा, “कला और साहित्य को गढ़ा नहीं जाता, ये तो हृदय की गहराइयों से स्वतः जन्म लेते हैं। जब मनुष्य समाज की पीड़ा को महसूस करता है, जब किसी वृक्ष के कटने पर उसकी आत्मा कांप उठती है, तब उसके भीतर से सृजन फूट पड़ता है। आज जब ज़मीन से रिश्ता टूटता जा रहा है, जब संवेदना विलुप्त होती जा रही है, तब रचनाकारों की ज़िम्मेदारी और भी बढ़ जाती है। “

विजय विनीत ने युवाओं से आग्रह किया, “तुम्हारी कविता में अगर एक बच्चे की भूख नहीं है, एक पेड़ की चुप्पी नहीं है, और एक मां की बेचैनी नहीं है—तो वह केवल शब्दों का खेल है। सच्चा सृजन वो है, जो रुला दे, जगा दे और बदलने को विवश कर दे। सच्चा लेखक वही है जो समाज की धड़कनों को सुन सके, और अपनी लेखनी से उन्हें अभिव्यक्ति दे सके।”
जाने-माने मानवाधिकार कार्यकर्ता डॉ. लेनिन रघुवंशी ने कहा कि “तुलसीदास, कबीर या प्रेमचंद जैसे साहित्यकारों ने कभी यह नहीं सोचा कि वे अमर साहित्य रच रहे हैं। वे तो अपनी अंतरात्मा की पुकार पर लिखते रहे। यही लेखन आज भी जीवित है।” उन्होंने जोर देकर कहा कि आज के दौर में भी हृदय से निकली रचनाएं ही समाज के दिल तक पहुंचती हैं।
पर्यावरणविद् बिस्वजीत सिंह ने अपने वक्तव्य में कहा कि अब समय आ गया है कि हम केवल चर्चा नहीं, व्यवहार में बदलाव लाएं। उन्होंने कहा कि “प्रकृति हमारे जीवन का मूल है और उसे बचाने का कार्य केवल सरकार या संगठनों का नहीं, हम सबका है।” उन्होंने ऐसे आयोजनों को समाज में धीरे-धीरे बड़े परिवर्तन की नींव बताया।
“मेरा शहर” की सोच
“मेरा शहर” की मुख्य कार्यकारी अधिकारी सोनल उपाध्याय ने कार्यक्रम के दौरान कहा कि “हमारा प्रयास केवल सांस्कृतिक गतिविधियों तक सीमित नहीं है, बल्कि हम एक ऐसे मंच का निर्माण कर रहे हैं जहां हर व्यक्ति को अपनी बात कहने, अपने अनुभव साझा करने और अपनी रचनात्मकता को सामने लाने का अवसर मिले। यह मंच न केवल अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को प्रोत्साहित करता है, बल्कि यह भी सिखाता है कि हम किस तरह एक संवेदनशील, जागरूक और जिम्मेदार नागरिक बन सकते हैं।
उन्होंने यह भी कहा कि आज जब पर्यावरण संकट हमारे दरवाजे पर खड़ा है और सामाजिक ताना-बाना लगातार बदल रहा है, ऐसे में हमारी यह जिम्मेदारी बनती है कि हम खुद में बदलाव लाएं और एक ऐसी जीवनशैली को अपनाएं जो सामाजिक रूप से न्यायपूर्ण हो और पर्यावरण के प्रति संवेदनशील भी। हमारा उद्देश्य है कि शहर के लोग, विशेष रूप से युवा पीढ़ी, इस मंच के ज़रिए संवाद और सृजन की दिशा में आगे बढ़े, और सतत विकास के विचार को अपने दैनिक जीवन में उतारें।

सोनल ने संस्था की गतिविधियों को रेखांकित करते हुए कहा, ‘मेरा शहर’ इस सोच का प्रतीक है कि बदलाव केवल नीतियों से नहीं, बल्कि लोगों की भागीदारी और संवेदनशीलता से आता है। हम चाहते हैं कि वाराणसी जैसे ऐतिहासिक और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध शहर में एक ऐसा वातावरण तैयार हो जहां परंपरा और आधुनिकता के बीच संतुलन बना रहे, और हर नागरिक एक दूसरे के साथ मिलकर एक बेहतर, हरित और समावेशी समाज की ओर कदम बढ़ाए।”
कार्यक्रम का समापन प्रतीकात्मक पौधारोपण के संकल्प के साथ हुआ। हर प्रतिभागी को एक पौधा भेंट करने का वादा करते हुए आयोजकों ने कहा कि छोटे-छोटे कदम ही बड़े बदलाव की नींव रखते हैं। यह संदेश था, “प्रकृति को बचाइए, ताकि आने वाली पीढ़ियां सांस ले सकें।”

वाराणसी जैसे ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक शहर में “मेरा शहर” संस्था की यह पहल एक नई चेतना का वाहक बनकर उभरी है। यह आयोजन इस बात का प्रमाण है कि जब रचनात्मकता, सामाजिक जिम्मेदारी और पर्यावरणीय चेतना एक साथ मंच पर आती हैं, तो न केवल विचार जन्म लेते हैं, बल्कि भविष्य को हराभरा और संतुलित बनाने की दिशा में एक सशक्त कदम भी उठाया जाता है।