चंदौलीः विद्याधरी ने गाया था देशभक्ति का पहला मुजरा

चंदौलीः विद्याधरी ने गाया था देशभक्ति का पहला मुजरा

जरा याद करो कुर्बानी

 जसुरी में जिंदा हैं कंठ कोकिला विद्याधरी बाई की यादें

विजय विनीत

कंठ कोकिला विद्याधरी बाई को जमाने ने भुला दिया, लेकिन जसुरी में इनकी यादें अभी जिंदा हैं। इनकी आवाज में ऐसी खनक थी कि राहगीरों के पांव खुद-व-खुद रुक जाते थे। यह वही विद्याधरी बाई हैं जिन्होंने संगीत के जरिये आजादी की अलख जगाई थी। हिन्दुस्तान में देशभक्ति का पहला मुजरा भी विद्याधरी ने ही गाया था। आजादी के लिए लड़ने वाले रणबाकुंरों को साजिंदा बनाकर अपने यहां छिपाती भी थी।


जसुरी कोई मामली गांव नहीं है। चंदौली जिला मुख्यालय के दक्षिणी छोर पर बसे इस गांव ने सुरों की कई मल्लिकाओं को जन्म दिया है। दीगर बात है कि इस गांव के लोग अब न विद्याधरी को जानते हैं न चंदा बाई को। लोग यह भी नहीं जानते कि इंदौर घराने की सुविख्यात नृत्यांगना कैसर बाई भी जसुरी की थीं। बिहार के अमावा स्टेट की सुविख्यात गायिका लक्ष्मी बाई की जन्मभूमि भी जसुरी थी। इन सभी कला साधकों ने अपने जीवन का सांद्यकाल जसुरी में ही बिताया। दुर्योग है कि जसुरी में अब गीत-संगीत की महफिल नहीं सजती है। चंदौली ही नहीं, जसुरी के लोग भी न इन महान हस्तियों को जानते हैं और न ही इनकी कुर्बानियों को।

आजादी के रणबांकुरों को अंग्रेज सैनिकों से बचाने के लिए बना देती थीं साजिंदा

विद्याधरी बाई ने साल 1930 में आजादी के आंदोलन में बड़ी भूमिका निभाई थीं। महात्मा गांधी की प्रेरणा से विदेशी वस्त्रों का परित्याग कर दिया था। ओजपूर्ण राष्ट्रीय गीतों को अपने कार्यक्रमों में निर्भीकता से गाकर आजादी के रणबांकुरों को प्रेरणा देती थीं। वह दुनिया भर में गाना गाने जाती थीं। दौलत लेकर लौटती थीं तो आजादी की लड़ाई लड़ने वाले रणबाकुरों के हवाले कर देती थीं। साल 2017 में अप्रैल महीने में सिने स्टार अन्नू कपूर बनारस आए तो उन्होंने खुद इस बात को खुद तस्दीक किया था। साथ ही विद्याधरी बाई का वह ऐतिहासिक मुजरा भी सुनाया था, जो क्रांतिकारियों में जोश भरने के लिए वह गाया करती थीं।
चंदौली के पूर्व ब्लाक प्रमुख वीरेंद्र सिंह बताते हैं कि विद्याधरी बाई गांव भर की बुआ थीं। जीवन के अंतिम काल में विद्याधरी बाई जसुरी में अपने छोटे भाई सरयू राय और भतीजे भगवती राय के परिवार के साथ रहीं।


उस समय जसुरी में विद्याधरी का इकलौता तिमंजिला मकान था, जिसमें बेल्जियम के झूमर लटकते थे। गांव के उत्तरी छोर पर बड़ा सा बगीचा भी था। आम, लीची, बेर, आंवला, खजूर और नारियल के पेड़ों के झुरमुटों के बीच संगीत के शौकीनों के ठहरने के लिए आलीशान कमरे थे। इन्हीं कमरों में आजादी के रणबांकुरे भी टिकते थे। बगीचे में पक्का कुआं था। तिमंजिले मकान में दो बड़े हाल थे। वह रियाज जसुरी में अपने बंगले में ही करती थीं। विद्याधरी बाई ने अपने बगीचे को सींचने के लिए जो कुआं बनवाया था।

सुविख्यात नृत्यांगना कैसर बाई से लगायात चंदा बाई व लक्ष्मी बाई भी जन्मी थीं जसुरी में

विद्याधरी बाई भजन गाती थीं, लेकिन खयाल, टप्पा, तराना, सरगम और ठुमरी में इनका कोई शानी नहीं था। अति शालीन, व्यवहार कुशल, सौम्य, शिष्ट, धार्मिक स्वभाव की विद्याधरी काशी नरेश के दरबार की गायिका भी थीं। हिन्दी ही नहीं, उर्दू, गुजराती, मराठी और बंग्ला में भी गाती थीं। वह कुछ भी गाती थीं, तो महफिल लूट लेती थीं।
अपने युग की सौंदर्यवती और कोकिल कंठी गायिका विद्याधरी ने बनारस के सुविख्यात सारंगी वादक राम सुमेरू मिश्र, दरभंगा के उस्ताद नसीर खां-बशीर खां और आखिर में मूर्धन्य संगीतकार दरगाही मिश्र से संगीत सीखी। जयदेव कृत गीतगोविंद की अनुपम गायिका के रूप में इन्हें देश भर की प्रमुख रियासतों में अपार धन, आदर, कीर्ति हासिल हुई।
विद्याधरी बाई का जन्म 1881 में जसुरी में हुआ था। उनकी मां मट्टा देवी और दादा परसोत्तम राय भी महान संगीत साधक थे। वह बेहद धार्मिक प्रवृत्ति की थीं। उन्हें जीवन ज्योति की दीपशिखा बुझने का आभास हो गया था। मृत्यु के एक दिन पहले बैशाख शुक्ल चतुर्दशी को वह जसुरी से बनारस के मिश्र पोखरा स्थित मुक्ति भवन आईं। 103 साल की उम्र में 10 मई 1971 दिन सोमवार को पूर्वांह्न तीन बजे वह साकेतवासी हो गईं।

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