कल्पना के पंख : जहां संवेदना बन जाती है कविता…!!

मुनक्का मौर्या ‘मृदुल’ के काव्य संग्रह “कल्पना के पंख” में उभरती है वंचितों की पीड़ा, देशभक्ति और नारी सशक्तिकरण
विजय विनीत
वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक, वाराणसी
श्रीमती मुनक्का मौर्या ‘मृदुल’ के काव्य संग्रह “कल्पना के पंख” पर लिखना मेरे लिए किसी औपचारिक आलोचना का कार्य नहीं, बल्कि आत्मीय भावों की पुनरावृत्ति जैसा है। यह एक ऐसा भावात्मक अनुभव है, जिसमें एक स्त्री की चुप्पियों में पल रही कविताएं, उसकी आंखों में थिरकती संवेदनाएं, और उसकी आत्मा में संचित संघर्ष, एक-एक शब्द बनकर काग़ज़ पर उतरते हैं।
मुनक्का मौर्या ‘मृदुल’ कविता को शब्दों की बाज़ीगरी नहीं मानतीं, वह इसे आत्मा की भाषा समझती हैं। “कल्पना के पंख” वास्तव में उस स्त्री की काव्य-उड़ान है, जिसने घर की चूल्हा-चौकी के धुएं में भी कविता खोजी, जिसने अपने भीतर बहती भावनाओं की नदी को रोका नहीं—बल्कि बहने दिया, गुनगुनाया, और फिर उसे कविता का आकार दिया।
इस संग्रह में जो तीन मूल स्वर उभरते हैं—देशभक्ति, नारी सशक्तिकरण और वंचितों की पीड़ा—वे नारे नहीं हैं। ये वे आंसू हैं, जो लेखिका की आत्मा से बहे हैं। मातृभूमि के लिए जो प्रेम उन्होंने व्यक्त किया है, वह किसी मंचीय जोश से उपजा नहीं, वह उस स्त्री की अनुभूति है, जो राष्ट्र के लिए माँ जैसा जुड़ाव महसूस करती है।
नारी सशक्तिकरण पर उनकी कविताएं किसी आक्रोश या विद्रोह की चीख नहीं हैं, बल्कि वे उस स्त्री की दृढ़ आवाज़ हैं, जो अपने अस्तित्व को सहेजते हुए समाज से संवाद करती है। उनकी कविताओं में नारी सिर्फ़ एक पीड़िता नहीं है, वह एक सृजनकर्ता है—एक मां, एक शिक्षक, एक पथप्रदर्शक।
वंचित समाज की पीड़ा पर उन्होंने जो कविताएँ रची हैं, वे दस्तावेज़ की तरह हैं—सत्य का, करुणा का, और न्याय की उम्मीद का। उनकी कविताएँ उन अनकही आवाज़ों की अनुवादक बन जाती हैं, जो अक्सर सभ्य समाज की चकाचौंध में दब जाती हैं।
इस पूरी रचनात्मक यात्रा में उनके परिवार का जो साथ रहा है, वह उनकी कविताओं में झलकता है। विशेष रूप से उनके जेठ, आदरणीय रामवृक्ष प्रसाद जी—जिनका साहित्यिक मार्गदर्शन इस संग्रह की पृष्ठभूमि में स्थायी भाव से उपस्थित है—उन्होंने न केवल मुनक्का जी को दिशा दी, बल्कि उन्हें यह विश्वास भी दिलाया कि घरेलू स्त्रियाँ भी गगन छू सकती हैं, बशर्ते उनके पास “कल्पना के पंख” हों।
मुनक्का जी चंदौली की एक शिक्षिका हैं, लेकिन उनकी कविताएं बताती हैं कि वह केवल पाठ नहीं पढ़ातीं—वो जीवन पढ़ती हैं, जीवन को जिया है उन्होंने और उसी को शब्दों में पिरोया है। इस संग्रह की सबसे बड़ी ताकत इसकी ईमानदारी है—न अभिनय, न आडंबर। बस एक स्त्री की सहज, पारदर्शी संवेदना, जो पाठकों को भीतर तक छू जाती है।
“कल्पना के पंख” सिर्फ़ एक काव्य संग्रह नहीं, बल्कि वह दर्पण है जिसमें एक महिला का संपूर्ण जीवन, उसकी कल्पना, उसकी पीड़ा और उसकी शक्ति एक साथ झलकती है। इस संग्रह को पढ़ना, दरअसल एक स्त्री की आत्मा को महसूस करना है—उस आत्मा को, जो हर घर में होती है, लेकिन हर बार कविता नहीं बनती।
मुझे विश्वास है, मुनक्का जी की यह काव्य यात्रा उन असंख्य स्त्रियों को भी प्रेरणा देगी, जो अब तक चुप रही हैं। और शायद यही इस संग्रह की सबसे बड़ी उपलब्धि है—यह केवल पढ़ा नहीं जाएगा, यह जिया जाएगा।