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गुलाबी होठ अब
कविता/गजल
आज पलकें आपकी बिखरा गए हैं
ये हवाओं से बहुत इतरा गए हैं।
नहीं हैं दिन अभी कचनार फूले
आप गुजरे हर गली महका गए हैं।
आपकी बांहों ने बांधा मरमरी
भोर के सारे सपन शरमा गए हैं।
कहीं पायल न खोले भेद चुप्पी का
गुलाबी होंठ अब कहां गए हैं।
संवरकर आ गया है रूप आंगन में
आप आंचल रेशमी सरका गए हैं।