जिंदगी की आखिरी मंजिल का सच

जिंदगी की आखिरी मंजिल का सच

 अखिरी मंजिल का पता बताता है महाश्मशान और धधकती चिताएं

विजय विनीत

बनारस में खामोशी, उदासी और गमगीन माहौल में चिता की लकड़ियों के चटखने की आवाज जिंदगी की आखिरी मंजिल का पता बताती है। यह मंजिल है काशी का मणिकर्णिका घाट। वही मणिकर्णिका घाट जो सदियों से मौत में मंगल और मोक्ष का गवाह बनता आया है। यहां जिंदगी रुबरु कराती है आखिरी सच से। महाश्मशान में धधकती उन चिताओं से जहां नश्वर शरीर भष्म हो जाता है। यह बात जग-जाहिर है कि यहां चिता पर लेटने वाले को सीधे मिलता है मोक्ष। यही वजह है कि दुनिया के इस इकलौते श्मशान में चिताओं की राख कभी ठंडी नहीं होती। न यहां लाशों का आना रुकता है…, न राम नाम सत्य है का कोलाहल थमता है…, न चिताओं का जलना बंद होता है।
काशी में सिर्फ मोक्ष ही नहीं, मरने और आत्महत्या करने की भी परंपरा थी। शास्त्रों में इसका विधान तो था ही, राजाओं की आज्ञा भी थी। साथ ही काशीवास के नियमों में शरीर की रक्षा करने का आग्रह भी था। इसका उल्लेख त्रिस्थली सेतु नामक पुस्तक में भी मिलता है।

आत्मरक्षात्र कर्त्त महाश्रेयोस्भिवृद्धये।

अत्रात्मत्यजनोपायं मनसापि न चिंतये।

मोक्ष पाने का सबसे बड़ा धार्मिक केंद्र होने के कारण इसे महाश्मशान कहा जाता है। इसका उल्लेख पुराणों में भी मिलता है। काशी खण्ड नामक पुस्तक में इसका जिक्र इस तरह किया गया है।

श्मशब्देन शवः प्रोक्त: शानं शयनमुच्यते।

निर्वचन्ति श्मशानार्थ मुने शब्दार्थकोविदा:

महान्त्यपि च भूतानि प्रलये समुपस्थिते।

 काशी के महाश्मशान में हैरान करने वाला एक सच यह भी है कि यहां मूर्दों से विधिवत टैक्स वसूला जाता है। लाशों से धन वसूलने की कहानी न सिर्फ दिलचस्प है, बल्कि इसकी परंपरा करीब तीस हजार साल पुरानी है। दरअसल श्मशान घाट की देख-रेख का जिम्मा जब कोई ओढ़ने के लिए तैयार नहीं हुआ तो डोम जाति इसके लिए आगे आया। दाह संस्कार के मौके पर डोम राजा को दान देने की परंपरा भी सालों पुरानी है। फर्क यह है कि तब न दाह संस्कार की मुंहमांगी कीमत वसूली जाती थी और न ही धन उगाही के लिए तरह-तरह के हथकंडे आजमाए जाते थे।

मुर्दों से होती है टैक्स की वसूली

काशी के महाश्मशान में टैक्स वसूलने की परंपरा राजा हरीशचंद्र के जमाने में शुरू हुई थी। हरिशचंद्र ने एक वचन को निभाने के लिए अपना राजपाट छोड़ दिया था और डोम परिवार के पूर्वज कल्लू डोम के यहां चाकरी करने को विवश हो गए थे। राजा हरिश्चंद्र को अपने बेटे की मौत पर अंतिम संस्कार के लिए दान के रूप में पत्नी की साड़ी का एक टुकड़ा कल्लू डोम को देना पड़ा था।
इसके बाद महाश्मशान पर टैक्स वसूली की परंपरा और भी ज्यादा मजबूत हो गई। पहले शव को जलाने के लिए आग देने के एवज में काशी के रईस मनमाना धन लुटा देते थे। सिर्फ रुपये-पैसे ही नहीं, जमीन-जायदाद से लेकर सोने-चांदी के जेवर व अशर्फियां तक दान करते थे।
मौजूदा समय में दान की परंपरा अब धंधे के रूप में बदल गई है। डोम परिवार के जासूस पहले से ही यह तय कर लेते हैं कि किस शव से कितनी रकम वसूली जा सकती है। दीगर बात है कि अब जमाने से मिलने वाली तयशुदा रकम के लिए डोम परिवार को अक्सर झकझक भी करनी पड़ती है।

सजती है अनूठी महफिल

काशी के महाश्मशान घाट का एक दूसरा सच है यहां हर साल सजने वाली महफिल। मस्ती में सराबोर एक चौंका देने वाली महफ़िल। एक ऐसी महफ़िल जो जितना डराती है, उससे कहीं ज्यादा हैरान करती है। काशी जिस मणिकर्णिका घाट पर मोक्ष की तलाश में मुर्दों को लाया जाता है, वहीं नगर वधुएं जीते जी मोक्ष की लालसा लेकर आती हैं। वह मोक्ष जो उन्हें अगले जन्म में उन्हें तवायफ न बनने का भरोसा दिलाता है।

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