महाकुंभ 2025: अव्यवस्थाओं के साये में ‘दिव्य और भव्य’ आयोजन

महाकुंभ 2025: अव्यवस्थाओं के साये में ‘दिव्य और भव्य’ आयोजन

@दिव्येन्दु राय

प्रयागराज में महाकुंभ 2025 को लेकर राज्य सरकार ने बड़े-बड़े दावे किए, इसे “दिव्य कुम्भ, भव्य कुम्भ” का नारा दिया गया और सरकारी मशीनरी इसे दुनिया के सबसे बेहतर आयोजनों में से एक साबित करने की कोशिश में जुटी रही। लेकिन जब असलियत की परतें खुलीं, तो तस्वीर कुछ और ही नज़र आई। श्रद्धालुओं की असुविधाएं, प्रशासन की लापरवाहियां और वीआईपी संस्कृति की हनक ने इस महाकुंभ को आम श्रद्धालुओं के लिए एक कठिन परीक्षा बना दिया।

सरकारी विज्ञापनों में प्रयागराज का महाकुंभ एक अविस्मरणीय आध्यात्मिक यात्रा के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है, लेकिन हकीकत में श्रद्धालुओं को बुनियादी सुविधाओं के लिए भी जूझना पड़ रहा है। न्यूज़ चैनल्स और अख़बारों में बड़े-बड़े विज्ञापन छपवाकर सरकार ने कुंभ को दिव्य और भव्य बताने का हर संभव प्रयास किया, लेकिन अगर कहीं कमी रह गई तो वह अव्यवस्थाओं की ख़बरें दिखाने में।

कुंभ जैसे महाआयोजन में व्यवस्था की सबसे पहली कसौटी होती है—आम श्रद्धालुओं की सुविधाएं। लेकिन हालात ये हैं कि सरकार के मंत्री देशभर में घूमकर विभिन्न राज्यों को कुंभ में आमंत्रित करते रहे, मगर उन्हीं श्रद्धालुओं के लिए पर्याप्त रुकने, खाने-पीने और स्नान की व्यवस्था तक नहीं की जा सकी।

मौनी अमावस्या के बाद भी कई सेक्टरों में अस्थायी बस्तियों की बसावट पूरी नहीं हो सकी। जो श्रद्धालु पहले आ चुके थे, वे भी अव्यवस्थाओं से परेशान दिखे। कुंभ के इतिहास को देखें तो पहले हर बार तीर्थयात्रियों को आवश्यक सूचना देने के लिए लाउडस्पीकर की व्यवस्था की जाती थी, लेकिन इस बार यह व्यवस्था न के बराबर है। इससे आम लोगों को सही समय पर सूचनाएं नहीं मिल पा रही हैं, जिससे कई जगह भ्रम की स्थिति बन गई।

भीड़ को नियंत्रित करने के लिए बनाए जाने वाले होल्डिंग एरिया (जो आमतौर पर स्कूल, कॉलेज या खुले मैदानों में होते थे) इस बार प्रभावी रूप से काम नहीं कर रहे। नतीजा यह हुआ कि श्रद्धालुओं की भीड़ सड़कों और घाटों पर अनियंत्रित हो गई, जिससे अव्यवस्थाएं और बढ़ गईं।

डिजिटल कुम्भ का नारा खोखला 

सरकार ने इस बार कुंभ को डिजिटल बनाने की घोषणा की थी, जिसमें वर्चुअल दर्शन, लाइव स्ट्रीमिंग, ऐप-बेस्ड सुविधाओं और टेक्नोलॉजी के ज़रिए बेहतर व्यवस्था के दावे किए गए थे। लेकिन ज़मीनी हकीकत यह है कि डिजिटल कुंभ के नाम पर सिर्फ प्रचार किया गया, जबकि वास्तविकता में व्यवस्थाएं ध्वस्त रहीं।

श्रद्धालुओं को आवश्यक जानकारी देने, आपातकालीन स्थितियों से निपटने और भीड़ नियंत्रण के लिए डिजिटल माध्यमों का प्रभावी उपयोग नहीं हो सका। कई लोग यह कहते पाए गए कि सरकार ने “डिजिटल कुंभ” की सिर्फ घोषणा की, लेकिन इसे जमीन पर लागू करने के लिए कोई ठोस रणनीति नहीं बनाई।

1954 के महाकुंभ में भगदड़ के बाद वीआईपी मूवमेंट पर सख्त पाबंदी लगा दी गई थी, लेकिन 2025 में यह नियम सिर्फ कागजों में ही दिखाई दिया। उत्तर प्रदेश के मंत्री, उपमुख्यमंत्री और तमाम वीआईपी अपने लाव-लश्कर के साथ कुंभ क्षेत्र में भ्रमण करते नजर आए।

उपमुख्यमंत्री का काफिला जब यूपी पवेलियन की तरफ पहुंचा, तो भीड़ को डायवर्ट कर दिया गया। घाटों पर आम श्रद्धालुओं को स्नान में असुविधा हुई क्योंकि कई मंत्रियों और गणमान्य लोगों के लिए खास इंतज़ाम किए गए थे। कुछ मंत्री तो संगम नोज पर सिर्फ इस इंतजार में खड़े थे कि कोई वीआईपी आए और उनके साथ स्नान कर लिया जाए।

कुंभ, जो भारतीय संस्कृति और जनसाधारण की आस्था का सबसे बड़ा पर्व माना जाता है, वह कुछ चुनिंदा लोगों के लिए विशेषाधिकार बनकर रह गया। वीआईपी मूवमेंट के चलते आम लोगों को घंटों तक लंबी लाइनों में खड़ा रहना पड़ा, जबकि बड़े अधिकारी और मंत्री विशेष सुविधाओं का लाभ उठाते रहे।

सरकार के पास जवाब नहीं?

अगर सरकार की कार्यशैली पर सवाल उठाए जाएं तो हुकूमत के करीबी लोगों को जवाब देना पड़ जाएगा, क्योंकि सवालों की फेहरिस्त काफी लंबी है:

1. आम लोगों के लिए बुनियादी सुविधाओं की व्यवस्था क्यों नहीं हुई?

2. मेला क्षेत्र में सूचना तंत्र इतना कमजोर क्यों रहा?

3. भीड़ नियंत्रण की रणनीति इस बार प्रभावी क्यों नहीं रही?

4. डिजिटल कुंभ के दावे महज़ प्रचार तक क्यों सीमित रह गए?

5. वीआईपी संस्कृति ने आम श्रद्धालुओं की तकलीफें क्यों बढ़ा दीं?

प्रयागराज का महाकुंभ केवल एक धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि भारतीय संस्कृति की जीवंत धरोहर है। इसे सफल बनाना सरकार की ज़िम्मेदारी थी, लेकिन अब तक की घटनाओं को देखते हुए साफ़ है कि यह आयोजन कई कमियों और प्रशासनिक लापरवाहियों से भरा पड़ा है। सरकार भले ही विज्ञापनों में इसे ऐतिहासिक बता रही हो, लेकिन ज़मीनी सच्चाई इससे बिल्कुल उलट है।

वीआईपी संस्कृति और सोशल मीडिया 

उत्तर प्रदेश सरकार के मंत्रियों, उनके परिजनों और करीबी लोगों ने प्रोटोकॉल का लाभ उठाकर संगम में स्नान का विशेषाधिकार प्राप्त किया, जबकि सैकड़ों-हजारों किलोमीटर दूर से श्रद्धालु केवल इसी आस्था के साथ प्रयागराज पहुंचे कि उन्हें भी संगम स्नान का पुण्य मिलेगा। लेकिन प्रशासन की प्राथमिकता आम जनता नहीं, बल्कि वीआईपी व्यवस्था थी। आम श्रद्धालुओं को संगम स्नान की जगह गंगा में स्नान करने को कह दिया गया, जिससे उनके लिए कुंभ का अनुभव अधूरा और अपमानजनक हो गया।

सरकारी विभागों के लिए बनाए गए अरैल घाट के जर्मन हैंगर टेंटों में उन्हीं का बसेरा रहा, जिनका सरकार से कोई लेना-देना नहीं था। न तो वे किसी सरकारी विभाग से जुड़े थे, न ही आधिकारिक रूप से उनकी कोई एंट्री दर्ज थी, लेकिन वे मंत्रियों और बड़े अधिकारियों के करीबी होने के कारण वहां ठहरने की विशेष सुविधा पा गए। वहीं, असली कल्पवासी और श्रद्धालु मूलभूत सुविधाओं के लिए जूझते रहे।

तीर्थयात्रियों के सुगम आवागमन के लिए गंगा और यमुना पर करीब 30 अस्थाई पुल बनाए गए थे, लेकिन इनमें से सभी को श्रद्धालुओं के लिए नहीं खोला गया। इसका परिणाम यह हुआ कि जो पुल खुले थे, उन पर भीड़ का असहनीय दबाव बढ़ता गया। सुरक्षा के नाम पर श्रद्धालुओं को एक बैरिकेड से दूसरे बैरिकेड तक दौड़ाया गया, जिससे उनकी परेशानी और बढ़ गई।

मौनी अमावस्या जैसे बड़े स्नान पर्व से पहले संगम घाट की ओर जाने वाले रास्तों को बंद कर दिया गया। इससे लोगों की भीड़ सीमित स्थानों पर ही उमड़ पड़ी और अव्यवस्थाओं का आलम और गंभीर हो गया। कुंभ की ओर लोगों का आकर्षण इस बार एक और वजह से था—रील संस्कृति।

कुंभ की पवित्रता पर प्रश्नचिह्न

कुंभ, जो आत्मसंयम, साधना, और अध्यात्म की पराकाष्ठा का पर्व माना जाता है, इस बार सोशल मीडिया के कंटेंट क्रिएटर्स के लिए सिर्फ एक वीडियो बनाने का स्टूडियो बनकर रह गया। हजारों लोग श्रद्धालु के बजाय यूट्यूबर्स, इंस्टाग्राम इन्फ्लुएंसर्स और टिकटॉक क्रिएटर्स के रूप में कुंभ में पहुंचे, जिनका लक्ष्य स्नान नहीं बल्कि रील बनाना था।

प्रचार-प्रसार की होड़ में मीडिया और डिजिटल प्लेटफॉर्म्स ने भी कुंभ की असली आत्मा को पीछे छोड़ दिया। जहां एक ओर अव्यवस्थाओं की खबरें दबा दी गईं, वहीं दूसरी ओर ‘लड़की की आँखें’, ‘खड़ा हाथ’, ‘कांटे का सेज’, ‘नशेड़ी को महान बनाने’ जैसे वायरल कंटेंट ने कुंभ के आध्यात्मिक महत्व को छिन्न-भिन्न कर दिया।

इस बार कल्पवास करने वालों की संख्या कम और फोटो-वीडियो खिंचवाने वालों की संख्या अधिक दिखी। मंदिरों और अखाड़ों में आस्था का माहौल पहले जैसा नहीं रहा, बल्कि हर जगह कैमरे, माइक और मोबाइल की भीड़ नज़र आई। यह कहना गलत नहीं होगा कि कुंभ अब आध्यात्मिक साधना के बजाय डिजिटल प्रचार का प्लेटफॉर्म बन चुका है।

आदमी सिर्फ एक आंकड़ा

भारत आज दुनिया की सबसे बड़ी आबादी वाला देश बन चुका है, लेकिन इस विशाल जनसमूह में एक सामान्य व्यक्ति की कीमत कितनी है? कुंभ में आई अव्यवस्थाएं इस सवाल का जवाब देती हैं। एक आम आदमी तब तक सिर्फ एक आंकड़ा भर है, जब तक वह जीवित है।

जब वह सरकारी योजनाओं में दर्ज होता है, तब वह एक डेटा प्वाइंट बनता है। जब वह किसी चुनाव में वोट डालता है, तब वह गिनती में आता है। जब उसे सुविधा देने की बात आती है, तब उसे हाशिए पर डाल दिया जाता है। जब उसकी मौत होती है, तब भी यह जरूरी नहीं कि उसकी गिनती हो।

कुंभ 2025 में जो कुछ भी घटित हो रहा है, वह सिर्फ एक धार्मिक आयोजन की बदहाली नहीं, बल्कि प्रशासनिक विफलता, वीआईपी संस्कृति, डिजिटल प्रचार की भूख और आम आदमी की अनदेखी का प्रतीक बन चुका है।

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