मोची अब सड़कों पर कम दिखते हैं : टूटे जूते नहीं बनते, फेंक दिए जाते हैं..!

शहरों की बदली जीवनशैली और बाजार के तेज़ी से बढ़ते उपभोग ने परंपरागत पेशों को डाल दिया है हाशिए पर
समीक्षा सिंह राजपूत
वाराणसी के आशापुर चौराहे पर तकरीबन शाम के 4 बजे होंगे। भीड़ सड़क से गुजर रही थी, लेकिन एक कोना ऐसा भी था जहां वक्त थम सा गया था। वहीं एक पुरानी लोहे की पेटी पर बैठे थे श्यामलाल की उम्र कोई पचास के करीब रही होगी चेहरे पर झुर्रियों की सिलवटें और आंखों में धूप से ज्यादा जीवन की थकावट। उनके पास एक टूटी-फूटी छतरी थी एक स्टूल, और सिलाई-कटाई के कुछ पुराने औज़ार।
“अब कोई जूता सिलवाने नहीं आता बेटा,” उन्होंने अपने पसीने से भीगे माथे पर रुमाल रखते हुए कहा, “सबको नया चाहिए। पहले जब किसी का जूता फटता था, तो सबसे पहले मोची की याद आती थी। अब मोबाइल में एप खोलते हैं, नया ऑर्डर करते हैं। हम लोग जैसे किसी को याद ही नहीं आते।”
श्यामलाल की बातों में सिर्फ़ शिकवा नहीं था, एक अदृश्य विलीन होती जाति का डर भी था। उनका स्टूल, जिस पर कभी दिनभर लोग आते-जाते रहते थे, अब दिनभर धूप में अकेला रहता है। उन्होंने बताया कि इसी मोची के काम से उन्होंने अपने तीन बच्चों को पढ़ाया, लेकिन अब उनके बेटे भी उन्हें कहते हैं …”बाबू ये काम मत किया करो कोई इज्ज़त नहीं देता आजकल।”
आशापुर चौराहे के जिस मोची से एक समय लोग अपना रोज़मर्रा का रिश्ता रखते थे, वह अब सिर्फ़ नज़रअंदाज़ किए जाने वाला कोना बन गया है। उनके पास बैठे एक अधेड़ आदमी ने धीरे से कहा “जब ये नहीं रहेंगे, तब लोग समझेंगे कि जूते खुद नहीं सिलते।”
यह सिर्फ़ श्यामलाल की कहानी नहीं है। बनारस के नदेसर, लहुराबीर, सिगरा या लंका जैसे हर इलाके की यही दास्तान है। जहां कभी हर चौक-चौराहे पर मोची बैठा करता था, अब वहां मोबाइल की स्क्रीन है, डिस्काउंट की दुकानों की भीड़ है और ‘यूज़ एंड थ्रो’ की मानसिकता है।
मोची सिर्फ़ चप्पल नहीं सिलता था, वह रिश्तों की मरम्मत करता था। एक फटी पट्टी जोड़ता तो लगता जैसे पुराने दिनों की कोई स्मृति बचा ली। लेकिन अब फटी चीज़ों को सहेजने की फुर्सत किसी को नहीं। बनारस के कॉलेज छात्र रजत सिंह कहते हैं “अब 100 रुपये में नई चप्पल आ जाती है। सिलवाने की झंझट कौन करे?”

श्यामलाल इस बात पर बस मुस्कुराते हैं, “हमारा हुनर अब बोझ बन गया है बेटा। पर क्या करें, छोड़ भी नहीं सकते। ये सिलाई मशीन, ये औज़ार ये हमारे हाथ से ज़्यादा हमारे दिल से जुड़े हैं।”
सरकारी योजनाओं में भी मोचियों की कोई जगह नहीं। न बीमा, न पेंशन, न पहचान। कोरोना के दिनों की बात याद करते हुए श्यामलाल कहते हैं, “किसी तरह राशन कार्ड से कुछ मिला, लेकिन बाकी दिन तो भूखे ही गए। कोई सरकारी अफसर ये देखने नहीं आया कि सड़क किनारे जो बैठा है, वो भी इंसान है।” उनकी आंखों में जब भी कोई ग्राहक आता है, हल्की सी चमक दिखती है। जैसे कोई भूखा परिंदा आसमान में बादल देख ले। लेकिन ज्यादातर लोग अब सिर्फ़ गुजरते हैं। उन्हें दिखता है सिर्फ एक बूढ़ा आदमी, जो वक्त के साथ कदम नहीं मिला पाया।
क्या कोई रास्ता है जिससे श्यामलाल जैसे हज़ारों मोचियों की पहचान बचाई जा सके? शायद हां अगर हम फिर से मरम्मत को महत्व देना शुरू करें। अगर स्कूलों में बच्चों को सिखाया जाए कि चीज़ें फेंकी नहीं जातीं सुधारी जाती हैं। अगर सरकार और समाज छोटे कारीगरों के लिए योजनाएं बनाएं जो उनके हुनर को सम्मान दे।
अब श्यामलाल अपनी पेटी बंद कर रहे हैं। सूरज ढल रहा है। वो चुपचाप अपने औज़ार समेटते हैं। एक टूटी हुई चप्पल उनके पास रखी है, जिसे कोई सुबह छोड़ गया था। वो देखते हैं, उठाते हैं और धीरे से बुदबुदाते हैं “कल शायद लेने आए…” शायद नहीं आएगा। लेकिन श्यामलाल आएंगे अगली सुबह फिर अपनी पेटी लेकर बैठेंगे। जैसे वो नहीं मानते कि दुनिया उन्हें भूल गई है।