कचौड़ी गली सून कइला बलमु: बनारस की आत्मा, दालमंडी के इश्क़ और विरासत को मिटाने की साजिश…!

दालमंडी गली सिर्फ़ ईंट-पत्थर नहीं, मोहब्बत और संगीत की रूह है जिसे मिटाने पर उतारू है हुक्मरानों का उन्माद…
@ विजय विनीत
बनारस की गलियां केवल रास्ते नहीं होतीं, ये एहसास होती हैं—अनुभव और इतिहास से बुनी हुई जीवंत कहानियां। उन्हीं में एक गली है दालमंडी। एक ऐसा मोहल्ला जो कभी रियाज़ की गूंज, घुंघरुओं की खनक और इश्क़ की सरगोशियों से महकता था। ये वे स्मृतियां हैं जो समय के साथ रच-बस गई हैं, जैसे कोई पुराना राग—जो बरसों बाद सुनाई दे तो दिल भीग उठे। आज वही दालमंडी विकास की आंधी में रौंदी जा रही है, जिसे उजाड़ने की तैयारी हो रही है, वह कभी बनारस की आत्मा की सबसे जीवित, सबसे खूबसूरत अभिव्यक्ति थी। शायद हुक्मरानों को अपने आदेशों का उन्माद है, पर इस मिट्टी की नब्ज़ की उन्हें कोई समझ नहीं।
दालमंडी वह गली है, जहां कला ने सांस ली, जहां विरह ने सुर बनकर बहना सीखा और जहां मोहब्बत ने समूचे संसार को ताक पर रख दिया। यहीं पर गौहर जान का इश्क़ परवान चढ़ा था—वही गौहर जान, जिसे न किसी महल की ख्वाहिश थी, न किसी इज़हार की ज़रूरत। उसका प्यार तो कचौड़ी गली में शाम को खड़े असलम को एक झलक देख लेने भर से मुकम्मल हो जाता था।
दालमंडी कोई आम गली नहीं है; यह समय की परतों में दबी वह इबारत है, जिसमें मोहब्बत, संगीत, विरह और संघर्ष की अनगिनत दास्तानें दफ़्न हैं। इन गलियों से होकर गुजरें तो ऐसा लगता है मानो किसी जीवंत संग्रहालय में प्रवेश कर रहे हों—जहां हर कोना एक राग छेड़ देता है, हर दहलीज़ कोई किस्सा सुनाती है।
दालमंडी, भले ही अपने पुराने शबाब से अब दूर हो चुकी हो, लेकिन इसके सन्नाटे में आज भी वे सुर गूंजते हैं, जो कभी ठुमरी, दादरा, कजरी और ग़ज़ल के रंगों में रंगे होते थे। यही वह जगह थी, जहां रियाज़ के स्वर सूरज उगने से पहले गूंज उठते और शाम होते-होते महफ़िलें सज जाती थीं। यहीं जन्मीं न जाने कितनी गुमनाम आवाज़ें, जिन्हें कभी मंच नहीं मिला, लेकिन जिनकी रूह बनारस की मिट्टी में आज भी घुली हुई है।
यह गली संगीत का मंदिर थी, जहां आवाज़ें पूजा बन जाती थीं और प्रेम तपस्या। जहां घुंघरुओं की झंकार आत्मा की मुक्ति की पुकार बन जाती थी। यहीं जन्मी सुरों की रानी गौहर जान की अमर प्रेमकथा—नज़ाकत और शबाब की मिसाल। एक ऐसी क्रांतिवीर तवायफ, जिसने अपने रियाज़ से बनारस की हवाओं में संगीत घोल दिया। गौहरजान का इश्क़ किसी इज़हार का मोहताज न था—बस शाम को कचौड़ी गली में खड़े असलम को पालकी से एक नजर देख लेना ही गौहर के लिए इश्क़ की इंतिहा थी।

लोक गायिका मालिनी अवस्थी ने अपनी पुस्तक ‘चंदन किवाड़’ में इस प्रेम कथा को जिस गहराई से उकेरा है, वह केवल साहित्य नहीं, इतिहास की गूंज है। इस दालमंडी की जगमगाती गलियों में न जाने कितनी अनकही कहानिया दफन हैं। उस्तादों से, बुज़ुर्गों से, आगरा, फर्रुख़ाबाद, कानपुर, लखनऊ, बनारस से लेकर मुज़फ़्फ़रपुर तक—कलाकारों के उत्थान-पतन, तालीम और कठिन रियाज़, मोहब्बत और धोखे, अपमान और जलालत की दिलचस्प दास्तानें अब भी बिखरी पड़ी हैं। किरदार चाहे जो भी रहे हों, तक़दीरें एक-सी थीं—महफ़िलों में मुस्कराते, गाते, गुनगुनाते चेहरे, जिनकी आवाज़ों में इतनी ताब थी कि किसी अजनबी का ग़म भी सोख लें।
यहीं रहती थीं गौहर जान! वह गौहर जान नहीं, जिन्हें कलकत्ता की मशहूर गायिका और पहली ग्रामोफोन रिकॉर्डिंग वाली कलाकार के रूप में जाना जाता है—बल्कि यह बनारस की दालमंडी वाली गौहर है, जिसने अपने इश्क़ को विरह में बदलते देखा। उसका इश्क़ था असलम से—एक रोबीला, खूबसूरत नौजवान, जो हर रोज़ शाम कचौड़ी गली में उसके दीदार के लिए आया करता। गौहर जान अपनी पालकी में बनारसी रेशमी चादर ओढ़कर निकलतीं और बस एक नज़र उस पर डाल आगे बढ़ जातीं। उस इश्क़ में कोई वादा न था, कोई पत्र न था—बस दीदार की खामोश तड़प थी।
असलम एक क्रांतिकारी नौजवान था। वो एक दिन अचानक वह ग़ायब हो गया। मिर्ज़ापुर में अंग्रेज़ों ने उसे पकड़ लिया और उसे फांसी पर चढ़ा दिया गया। फिर गौहर की बेचैनी बोल बनकर फूट पड़ी—
“मिर्ज़ापुर कइला गुलज़ार हो, कचौड़ी गली सून कइला बलमु…”
यह महज़ एक कजरी नहीं, एक प्रेम-गाथा है। एक प्रेमिका की पुकार, एक तवायफ की चीख, एक कलाकार की आत्मा की हूक। बालकृष्ण कलाकार जैसे विद्वान तबला वादक जब इसे बजाते थे, तो भावुक होकर रो पड़ते थे, क्योंकि वे जानते थे कि यह कोई राग नहीं, बल्कि एक असल प्रेम की समाधि है।

गौहरजान का इश्क
गौहर जान की यह कथा बनारस की संस्कृति का वह अनछुआ अध्याय है, जो आज भी मंचों से जीवित होती है। प्रेम केवल मिलन नहीं, एक अधूरी प्रतीक्षा का भी नाम है। गौहर जान की अधूरी मोहब्बत की यह दास्तां किसी दंतकथा की तरह आज भी बनारस में अमर है।
लोकगायिका मालिनी अवस्थी कहती हैं, “जब मैं मंच पर इसे गाती हूं, तो मानो हर सुर में गौहर की हूक होती है, हर ताल में असलम की मुस्कराहट। कचौड़ी गली की वीरानी, दालमण्डी की उजास, सब एक साथ सामने आ खड़े होते हैं। उस विरह, उस इंतज़ार और उस अधूरी मोहब्बत को गाए बिना इस गीत को गाना मेरे लिए संभव नहीं। आज जब मैं यह कजरी गाती हूं, तो मेरी आंखें बंद हो जाती हैं — मानो मैं खुद उस पल की साक्षी हूं। चौक पर खड़ा असलम, पालकी में लिपटी गौहर जान, और कचौड़ी गली का वह वीरान कोना, जहां अब भी वह इंतज़ार गूंजता है।”
मालिनी बताती हैं, “गौहर जान स्वयं एक क्रांतिकारी महिला थीं। देश को आज़ाद कराने के लिए उन्होंने भारी-भरकम चंदा जुटाया और अंग्रेजी हुकूमत से मुकाबले के लिए महात्मा गांधी को दे दिया। गौहर जान — वह कोई नाम नहीं, बल्कि एक आवाज़ थीं। कोई साधारण तवायफ नहीं थीं वह; वह सुरों की देवी थीं, जिनकी ठुमरी और कजरी सुनकर लोग वक्त को भूल जाया करते थे। कहते हैं, जब वह गाती थीं, तो राग में उनकी आत्मा उतर आती थी। उनकी एक कजरी आज भी बनारस की फिज़ाओं में तैरती है।”
लोकगायिका मालिनी अवस्थी अपनी पुस्तक ‘चंदन किवाड़’ में लिखती हैं, “उस दौर की बात और थी। आजकल वैसी आशिकी कौन करता है? इश्क तो उस दौर में हुआ करता था। नर्म दिल बस किसी का हो जाना चाहता था और इस हो जाने में ही दुनिया की तमाम खुशियां न्योछावर थीं। कभी किसी का ज़िक्र सुनकर इश्क हो गया, तो कभी किसी की शायरी से और कभी किसी की आवाज़ सुनकर इश्क हो गया। इस इश्क में मुलाकात कोई शर्त नहीं थी। इसमें कुछ पाने की हसरत नहीं, सिर्फ सच्ची आशिकी में खाक हो जाने की तड़प होती थी। दीदार होना तो फिर भी बड़ी बात थी — उस दौर में आंखें मिल जाना ही प्यार था। आशिक का इंतज़ार, दीदार और फिर दीदार का इंतज़ार। इसी में न जाने कितनी ठुमरियों की बंदिशें रच दी गईं। दालमंडी में सुर, साज और आत्मा का संगीत अब खमोशी ओढ़े बैठा है।”
दालमंडी: एक सांस्कृतिक करुणगाथा
काशी विश्वनाथ धाम के सुंदरीकरण ने मंदिर के चारों ओर की गलियों को भले ही चमकदार बना दिया हो, पर इस विकास की आंधी में दालमंडी जैसे सांस्कृतिक जीवंत इलाके का स्वर थमने लगा है। एक बाजार जो सिर्फ खरीद-बिक्री का ठिकाना नहीं था, बल्कि जहां बनारस की आत्मा सांस लिया करती थी, वहां अब सन्नाटा तारी है। दालमंडी की गलियों में कभी त्योहारों की गूंज होती थी—ईद पर सेवइयों की खुशबू और होली पर रंगों की बौछार। अब वही गलियाँ खामोश हैं, जैसे किसी ने चुप्पी ओढ़ ली हो।
विश्वनाथ मुखर्जी ने जब ‘बना रहे बनारस’ में लिखा कि 18वीं सदी की दालमंडी में शाम होते ही रईस सफेद बनारसी पहनकर संगीत की महफिलों में पान की गिलौरी के साथ रम जाते थे, तो शायद उन्हें भी अंदेशा नहीं रहा होगा कि एक दिन इन रियासतों की दीवारें सिर्फ यादों की कब्रगाह बन जाएंगी। अंग्रेजों के आगमन के साथ इन गलियों ने एक नया चेहरा देखा—जब तवायफें आईं, जब सुर और साज ने नए रंगों में अपना ठिकाना ढूंढ़ा। ‘डॉलमंडी’ कहलाने लगी यही दालमंडी, पर उसकी आत्मा अब भी वही थी—संगीत, मोहब्बत और तहज़ीब की।
यह सिर्फ एक बाजार नहीं, वह धड़कन थी जो बनारस के हर दिल में धक-धक करती थी। हजारों परिवारों की रोजमर्रा की ज़रूरतें, रिश्तों की बुनावट, बच्चों की हंसी, और त्योहारों की रौनक—सब दालमंडी से ही तो थी। और अब यही धड़कन जैसे दम तोड़ रही है। कभी इन हवेलियों से तबले की थापें आती थीं, आज उनके खंडहर चुप हैं। ‘इन्हीं लोगों ने ले लीना दुपट्टा मेरा’ जैसे गीत अब दुकानों में बजते हैं तो वह आनंद नहीं, एक टीस छोड़ते हैं—बीते जमाने की, छिनती पहचान की।
लच्छू महाराज की उंगलियों से जब तबला बोलता था, तो दालमंडी थिरक उठती थी। वही हवेली आज एक कॉम्प्लेक्स है। राजपूत कटरा, जहां कोई रियाज़ नहीं होता, कोई सुर नहीं गूंजता। निर्मला देवी वहीं जन्मी थीं, और अब वह जगह अजनबी सी लगती है। उस्ताद बिस्मिल्लाह खान कहते थे, “अगर दालमंडी और वहां की तवायफें न होतीं, तो बिस्मिल्लाह खान भी न होते।” उनकी शहनाई, रसूलनबाई की ठुमरी, विद्याधरी बाई की कविताएं—इन सबने मिलकर जो बनारस रचा, वह अब धीरे-धीरे मिटता जा रहा है।

यह वही दालमंडी थी जहां स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ी गई थी। तवायफों ने अपने गहने बेच डाले, कोठों को गुप्त सभाओं में बदला। धनेसरीबाई ने आज़ाद को शरण दी, विद्याधरी ने गीतों में क्रांति जगा दी, और नन्हकू ने अंग्रेजों को गोली से जवाब दिया।फिर 1969 आया, जब रसूलनबाई का कोठा जलाया गया। वह चाय की दुकान तक पहुंचीं, लेकिन उनकी ठुमरी नहीं बुझी। उनके गहनों की चमक तब निखरी, जब उन्होंने उन्हें सिर्फ आज़ादी के दिन पहना।
अब जब हम दालमंडी की बात करते हैं, तो वह एक संघर्ष की कहानी लगती है—जहां इमारतें नहीं, स्मृतियां टूट रही हैं।
जहाँ व्यापार नहीं, पहचान उजड़ रही है और बनारस का एक टुकड़ा खामोशी ओढ़े बैठा है।
दालमंडी आज भी त्योहारों की साज-सज्जा बेचती है—लेकिन खुद को सजा नहीं पाती। वह एक जिंदा विरासत है, जो हुक्मरानों के फरमान के नीचे दब रही है। वसीम अंसारी की आंखों में झांकिए, जो कहते हैं, “अब त्योहार सिर्फ सामान बेचने का बहाना रह गए हैं, पहले वो हमारे भीतर उतरते थे।”
काशी अब एक परियोजना बनती जा रही है। विकास के नाम पर वह शहर, जो गलियों में बसता था, नक्शों और नकली चमक में गुम हो रहा है। दालमंडी का नाम मिटाना, सिर्फ एक नाम मिटाना नहीं है। यह बनारस के दिल में छुरा चलाने जैसा है। जहां एक पूरी तहज़ीब, पूरी विरासत और एक पूरी आत्मा दबाई जा रही है—बिना शोर किए। दालमंडी अब भी सांस ले रही है, लेकिन उसकी हर सांस में एक चीख दबी है। सुन सको तो सुनो—काशी अब मौन हो रही है।
दरअसल, दालमंडी वह जगह है जहां इत्र की खुशबू, कढ़ाईदार बनारसी साड़ियों की रंगीन परतें, मिठाइयों की मीठी महक और शाम को धीमे-धीमे बजते संगीत के सुरों में धर्म नहीं बोलता, इंसानियत बोलती है। यहां पीढ़ियों से हिंदू और मुसलमान एक ही चाय की दुकान पर बैठते हैं, एक-दूसरे के त्योहारों में शामिल होते हैं, और एक ही बाज़ार में रोज़ी-रोटी कमाते हैं।
दालमंडी में जब हुक्मरान तिरपाल हटाने को आगे बढ़ते हैं, तो बुल्डोज़र की आहट सुनाई देती है और ऐसा लगता है जैसे गौहर फिर अपने रेशमी आंचल में चेहरा छुपाकर रो रही हों। आज जब दालमंडी गली को मिटाने की तैयारी की जा रही है, तो केवल ईंट और दीवारें नहीं टूटेंगी, बल्कि बनारस की रूह, उसकी सांस्कृतिक धरोहर और उसकी मोहब्बत की जड़ें दरक जाएंगी।
आज दालमंडी की रूह घायल है। गली को सड़क में तब्दील करने के लिए घरों पर अमिट निशान लगा दिए गए हैं। हर खांटी बनारसी आहत है, लेकिन जिस तरह से विश्वनाथ कारिडोर के समय तमाम मंदिरों को नेस्तनाबूूत कर दिया गया और लोग चुप बैठे रहे, वही स्थिति इस बार भी है। दालमंडी को बचाना केवल एक गली को बचाना नहीं है। यह बनारस की आत्मा को बचाने की लड़ाई है। यह लड़ाई किसी धर्म के पक्ष में नहीं, बल्कि संवेदनाओं, संवाद और सह-अस्तित्व के पक्ष में है।
हमें तय करना है कि हम बनारस को एक जीवंत, बहुरंगी पहचान वाला शहर बनाए रखना चाहते हैं या उसे एक ऐसा शहर बना देना चाहते हैं, जहां पहचान केवल नफ़रत के लेंस से तय की जाए। दालमंडी को मत मिटाओ, क्योंकि जब दालमंडी मिटेगी तो बनारस का दिल धड़कना बंद हो जाएगा….।
बड़ा सवाल यह है कि क्या यह इश्क़ मिटाया जा सकता है? क्या रियाज़ की वो सदियां ध्वस्त की जा सकती हैं? क्या गुलाबी चादर ओढ़े गौहर की इंतज़ार करती निगाहों को मलबे में दबाया जा सकता है? क्या सिर्फ दीवारें टूटेंगी या बनारस की वह आत्मा भी दरक जाएगी, जो इन गलियों में सांस लेती थी? क्या एक क्रांतिवीर तवायफ के प्यार को यूं मलबे में दफ़न किया जा सकता है?
नहीं।
दालमंडी कोई इमारत नहीं, यह बनारस के दिल का धड़कता हुआ कोना है। यह गली गौहर जान की आंखों का इंतज़ार है। असलम की चुप मोहब्बत है और बनारस के संगीत की वह विरासत है जिसे मिटाया नहीं जा सकता, चाहे आप कितने ही नक्शे बदल लें। जब आप आज की सियासत और उसकी अंधी चाल को देखते हैं, तो दालमंडी की यह कजरी फिर से गूंजती है—
“कचौड़ी गली सून कइला बलमु…”
यह कोई आवाज़ नहीं, यह प्रतिरोध है। यह संस्कृति की पुकार है — जिसे ज़िंदा रहने दो।

आखिर में मेरी एक कविता, जो ‘बनारस की आत्मा की विदाई गीत’ है….।
“दालमंडी की आख़िरी शाम”
कचौड़ी गली की मुंडेरों से,
अब न सुरों की सदा आती है,
गौहर की वो पुरनूर नज़रों की
चमक अब तस्वीरों में समा जाती है।
पलकों में रूह की बात बसी थी,
दिल में एक बेचैन सी तासीर,
असलम की बस एक झलक भर से
गौहर गा देती थी तक़दीर।
ना इज़हार था, ना कोई वादा,
ना चिट्ठी, ना संदेसा था,
फिर भी हर शाम के धुंधलके में
इश्क़ का एक सपना साया सा।
वो दौर था, जब देखना ही इबादत था,
जहाँ आँखें ही आरती थीं,
मुलाक़ात की न थी ज़रूरत,
महसूस करने की रीत थी।
असलम गया—फिर लौट न आया,
गौहर ने ग़ज़लों में दर्द सजाया,
“कचौड़ी गली सून कइला बलमू”—
ये बस गीत नहीं, विरह का साया।
अब जब बुलडोज़र दालमंडी से गुज़रेगा,
तो यक़ीनन गौहर की साँसें काँपेंगी,
उस मिट्टी में वो मुहब्बत दबी है,
जो हर इमारत से ऊँची थीं।
ये सिर्फ़ गली नहीं जो मिटेगी,
ये राग हैं, रस हैं, रूहें हैं,
जो दालमंडी के हर मोड़ पर
आज भी फुसफुसाकर कहती हैं—
“इश्क़ मिटाया नहीं जाता साहिब,
वो तो बस वक़्त के साथ सुनाई देना बंद हो जाता है…”
— विजय विनीत (पत्रकार, लेखक, बनारस की आत्मा के चितेरे)