काशी: जहां मृत्यु उत्सव है और नृत्य बन जाता है मोक्ष…!!

काशी: जहां मृत्यु उत्सव है और नृत्य बन जाता है मोक्ष…!!

✍ विजय विनीत

“जहां रूहें तिल-तिल जलती हैं,
वहीं पायलें श्मशान में बजती हैं।
ये बनारस है, जनाब…
यहां मृत्यु भी नृत्य करती है!”

काशी… केवल एक शहर नहीं है। यह वह ठिकाना है जहां जीवन की परिभाषाएं उलट दी जाती हैं, जहां शमशान की राख में भी सौंदर्य झलकता है, जहां मृत्यु अंत नहीं, उत्सव है… और जहां नृत्य मोक्ष की अनुभूति बन जाता है।

मणिकर्णिका घाट… इस घाट की सीढ़ियों पर बैठकर जब आप चिता की लपटों में झुलसते शरीरों को देखते हैं, तो जीवन का झूठा अभिमान खुद-ब-खुद राख हो जाता है। यहां हर दिन सैकड़ों चिताएं जलती हैं और हर चिता पर कोई एक जीवन समाप्त नहीं होता—बल्कि जन्म लेता है एक नया अध्याय, जिसे काशी ‘मोक्ष’ कहती है।

काशी की सबसे विचित्र बात यही है कि यहां मृत्यु डर नहीं देती, बल्कि आलोकित करती है। यहां की हवा में, धुएं में, राख में, हर क्षण में एक दार्शनिक सौंदर्य है।
यहां मृत्यु भी जीवन का उत्सव है, और इस उत्सव का सबसे अलौकिक रंग तब उभरता है जब नगरवधुएं अपने जीवन की पीड़ा को गले लगाकर मणिकर्णिका के किनारे नृत्य करती हैं।

नृत्य और राख के बीच का संवाद

रात के तीसरे पहर जब घाट पर चिताएं जल रही होती हैं, उन्हीं लपटों के बीच कहीं कोने में कोई नगरवधू ‘ठुमरी’ की लय में अपने घुंघरू बांधती है। यह नृत्य किसी तमाशे के लिए नहीं है। यह नृत्य उस पीड़ा का विसर्जन है, जो उसे समाज ने दी, जो समय ने दी, जो नियति ने दी।

उसकी पायलें जब श्मशान की नीरवता में छनकती हैं, तो लगता है जैसे आत्माएं जाग उठीं हों। जैसे मृत शरीरों की राख से निकलकर कोई कथा उभर रही हो—एक ऐसी कथा जो कहती है: “हम भी जिए थे, हमने भी चाहा था, और अब मुक्त हो गए…”

काशी की स्त्रियां: नगरवधु और मोक्ष की प्रतीक

काशी में नगरवधु होना कोई सामाजिक कलंक नहीं, बल्कि एक परंपरा है। ये वे स्त्रियां हैं जो समाज के बाहर रहकर भी संस्कृति को जीवित रखती हैं। जिन्होंने अपनी देह को बाजार बना दिया, लेकिन आत्मा को कला में डुबो दिया।

जब वे घाट की सीढ़ियों पर ‘बाजूबंद खुला खोल दूं’ जैसे गीतों पर थिरकती हैं, तो वहां कोई वासना नहीं होती—बस एक मार्मिकता होती है, जो आंखों को नम कर देती है।
वे थिरकती हैं, लेकिन उनके मन में अनगिनत रूहें बोलती हैं। जैसे वे हर चिता के साथ अपना एक टुकड़ा मिटा रही हों।
यह मोक्ष का नृत्य है… जहां देह की नहीं, आत्मा की मुक्ति होती है।

मणिकर्णिका: जहां समय थम जाता है

कई बार सोचता हूं—यह कैसा नगर है, जहां शव यात्रा के पीछे चलते लोगों के कदमों से ज्यादा तेज़ होती है, यहां की आरती की थाप।
जहां ‘राम नाम सत्य है’ के स्वर भी सुर में गूंजते हैं, और चिता की आग में भी चमत्कारिक सुकून होता है।

मणिकर्णिका पर समय थम जाता है। वहां केवल वर्तमान होता है—न भूत, न भविष्य। बस, एक क्षण—और उस क्षण में जीवन और मृत्यु, दोनों समाहित हो जाते हैं।

काशी की आध्यात्मिक विडंबना

बनारस की गलियों में भटकते साधु, हंसते बच्चे, और जले हुए शवों के पास नहाती गंगाजल में डूबी औरतें—सब कुछ एक साथ घटता है, बिना किसी विरोधाभास के।
काशी में हर चीज़ स्वीकार है—मृत्यु भी, विकृति भी, और मुक्ति भी।

यहां रात को भी दीप जलते हैं, और दिन में भी श्मशान धधकते हैं।
काशी का यही सौंदर्य है—यह विरोधों का संगम है।
यहां अघोरी शव पर बैठकर ध्यान करते हैं, और साधु कफन ओढ़कर शिव का भजन गाते हैं।

मोक्ष की वह परछाई

काशी में मृत्यु का अर्थ है—मोक्ष। लेकिन यह मोक्ष केवल चिता की अग्नि से नहीं मिलता।
यह मोक्ष आत्मबोध से मिलता है।
जब आप उस नगरवधु की आंखों में देखते हैं, जो मुस्कुरा रही है, जबकि उसने सब कुछ खो दिया है—तब समझ आता है कि काशी मोक्ष क्यों है।

जब कोई अघोरी राख मलकर कहता है—”मैं ही शिव हूं”—तब एहसास होता है कि यहां मृत्यु भी एक साधना है।

काशी मृत्यु का उत्सव है, क्योंकि यहां मृत्यु भी जीवन की तरह जिया जाता है।
यहां चिता की लपटों में भी एक अद्भुत उजास है।
यहां हर पायल की छनकती ध्वनि में शिव की डमरू की प्रतिध्वनि है।
यहां हर नृत्य… मोक्ष है।

“काशी न जाये, सोई अभागा,
मणिकर्णिका की राख में भी,
छुपा है ब्रह्म का भागा।”

और सच कहूं… बनारस में मृत्यु नहीं डराती।
बल्कि वह कहती है—“आओ, अब नृत्य करो… मुक्त हो जाओ।”

काशी: जहां मृत्यु उत्सव है और नृत्य बन जाता है मोक्ष…!!

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