काशी में टूट रहे नवोदित पत्रकारों के रुमानी ख्वाब

काशी में टूट रहे नवोदित पत्रकारों के रुमानी ख्वाब

कहीं पत्रकारों की नैतिकता पिस रही होती है, तो कहीं उनकी जिंदगी…।

विजय विनीत

बनारस में पत्रकारों की नई पौध तैयार है। दस, बीस, पचास नहीं,हजारों की तादाद में। ये वो युवा हैं जिन्होंने फौलादी इरादों के साथ पत्रकारिता की डिग्री ली है। नौकरी ढूंढने के लिए मारा-मारी है…होड़ है…छटपटाहट और उतावलापन भी है। असलियत से साबका पड़ा है। ढेरों ख्वाब और सारी रुमानियत भरभराकर गिरने लगी है…। इरादे टूटने लगे हैं…। यथार्थ की कठोरता हौसला डिगाने लगी है…। नौकरी कौन कहे? अखबारों के मालिक युवा जर्नलिस्टों को इंटर्न तक कराने के लिए तैयार नहीं हैं।

अभिव्यक्ति की आजादी और नैतिकता जैसी सीख लेकर युवा जब पत्रकारिता डिग्री लेने आते हैं तो मन में ढेरों सपने होते हैं। सुनहरे ख्वाह होते हैं। पढ़कर निकलते हैं तो सामने दिखती हैं खुरदुरी चट्टानें। ऐसी चट्टानें जिसे लांघ पाना हर किसी के बूते में नहीं होता। पत्रकारिता में अब दिखता और है, सच कुछ और होता है।

अभिव्यक्ति की आजादी की बात करें तो वह अखबार मालिकों और चापलूस संपादकों की अलमारी में बंद होती है। उतनी ही खुलती है जितना वे खोलना चाहते हैं। नवोदित पत्रकारों को शायद यह पता नहीं होता कि अखबारों में लिखने से अब दुनिया नहीं बदलती। अगर कुछ बदलती है तो वह होती है मैनेजमेंट की दुनिया, आपकी, हमारी और समाज की नहीं। आप तनिक भी उनकी नीतियों के खिलाफ गए,तलवार से आपका सिर कलम होते देर नहीं लगेगी। मतलब नौकरी गई तो फिर से शुरू कीजिए सड़कों पर खाक छानने का रिहल्सल। पत्रकारिता में नैतिकता और सैद्धांतिक बातें यथार्थ के धरातल पर सबसे पहले खंडित होती हैं।

जनता की नजर में आज मीडिया सर्वाधिक संदिग्ध है। पत्रकारों से अपेक्षा की जाती है कि वह सच लिखे। नैतिकता का निर्वाह करे। उसका चेहरा समाज को पाक-साफ दिखे। आखिर यह सब कैसे संभव है? जब मालिक का चापलूस संपादक उसे कुछ और ही लिखने के लिए डिक्टेट करता है। सच को छुपाकर, नया सच गढ़ने की गंदली कोशिश करता है। आप चाहकर भी सच नहीं लिख सकते क्योंकि बड़े अखबार और पत्रिकाएं अब ब्रांड हैं। प्रबंधन के चंगुल में दबाए गए कठपुतली भर हैं। आपकी आवाज निकलेगी तो प्रबंधन की सुर अलापेगी। आप न अपनी राह पर नहीं चल सकते हैं और न ही अपना कोई राग अलाप सकते हैं। कॉन्ट्रैक्ट सिस्टम ने तो पत्रकारिता का बेड़ा ही गर्क कर दिया है।

बड़ा सवाल यह है कि पत्रकार अपनी नौकरी बचाएं या फिर नैतिकता।मैं जब एक रिपोर्टर के तौर पर अखबारों में काम करता था तब लगता था कि सारा खेल संपादक करते हैं। पर जिम्मेदारियां खुद के कंधे पर आती हैं तब पता चलता है कि समाज में संपादक से बेचारा तो कोई दूसरा है ही नहीं। वो तो बाजार और प्रबंधन के बीच पिस रहा होता है। कुर्सी भले ही उसकी होती है, बोल तो कोई और ही रहा होता है।

आप सत्ता के खिलाफ लिखेंगे तो दरबदर की ठोकर खाएंगे या फिर मारे जाएंगे। दुनिया भर में पत्रकार मारे जा रहे हैं। मारे भी वही जाते हैं जो सत्ता के भोंपू नहीं होते। पुलिस और प्रशासन का गुणगान नहीं करते। बेखौफ होकर कलम चलाते हैं। अपनी नैतिकता बचाना चाहते हैं।

पत्रकार इन दिनों अनगिनत दबाव में काम कर रहे हैं। ठेका सिस्टम,मैनेजमेंट की गंदी नीतियां, अपनी नैतिकता कायम रखने का संकल्प,सत्ता का भय, बंटा हुआ समाज,  इन सबका दबाव है कलम पर। इन सबके बीच संतुलन बैठाने में सबसे बड़ी बाधा हैं विचारधाराएं। अनगिनत विचारधाराएं, जिनकी पाटों में कहीं पत्रकारों की नैतिकता पिस रही होती है, तो कहीं उनकी जिंदगी…।

और अंत में—–

डूबे हुए से रहते हैं, न कश्ती मिलती है, न किनारा मिलता है।

ये ऐसा समंदर है जिंदगी, जहां मौत ही किनारा मिलता है।।

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