काशी में ठंड का सितमः धुंध बनी नकाब, छिपा लिया सितारों को…!!
गरीबों की जिजीविषा, बेबस जिंदगी की कराह और नेताओं के खोखले वादों पर सवाल?
विजय विनीत
ठंड का मौसम हमेशा किसी न किसी को आज़माता है। यह मौसम धनकुबेरों के लिए रूमानी एहसास हो सकता है, जिनके पास गरम रजाइयां और लकड़ी की जलती आंच का सहारा है। जिनके पास नर्म-मुलायम रजाइयों की गरमी में सुस्ताने और लकड़ी की जलती आंच के आगे बैठकर कहानियां बुनने का समय होता है, उनके लिए यह ठंड मन बहलाने का जरिया हो सकता है। लेकिन काशी की सड़कों पर ठंड की एक क्रूर हकीकत भी दिखती है। यह हकीकत सिर्फ उन लोगों को दिखती है, जिनकी आंखों पर दौलत की पट्टी नहीं बंधी होती।
काशी में हर रोज़ न जाने कितने रिक्शा चालक और फुटपाथ पर सोने वाले बेसहारा लोग ठंड को अपनी सांसों में महसूस करते हैं। यकीन कीजिए। बनारस की सड़कों पर, हर दिन एक नई चुनौती का सामना करने वाले लोगों के लिए, ठंड एक कठिन परीक्षा बन जाती है। इसके बावजूद नहीं टूटती तो इनकी जिजीविषा। तब भी वह किसी तरह खुले आसमान के नीचे गुदड़ी लपेटकर गुजारा कर ही रहा है। यह किसी तरह ही तो इनका संबल है-जीने का चिरपरचित तरीका।
इसी दो जनवरी (बुधवार) को सूरज की पहली किरण के लिए तरसती आंखों को धुंध ने ऐसा ढका कि आसमान और जमीन के बीच की सारी उम्मीदें खो सी गईं। सूरज से लेकर सितारे तक कहीं खो गए। सर्द हवाओं ने शरीर को झकझोर दिया। शाम को उम्मीद थी कि शायद सितारों की झिलमिल रोशनी से कोई राहत मिलेगी, लेकिन धुंध ने सितारों को भी अपने आगोश में ले लिया। सारा बनारस दिनभर ठिठुरता रहा। खुले आसमान के नीचे जीने वालों के लिए यह धुंध किसी दुश्मन की तरह बन गई है, जो उनके जीवन के हर पहलू में तकलीफें बढ़ा रही है।
झन्नाटेदार सर्दी इन दिनों सितम ढा रही है। साखतौर पर उन लोगों पर जिनके पेट हर रोज मजूरी करने के बाद ही भरा करते हैं। वो रिक्शा चालक जिनकी धड़कन दिनभर की कड़ी मेहनत से चलती है। जो समुदाय हासिये पर है, इनकी रोज़ी-रोटी भी इस ठंड में ठहर गई है। ठंड केवल शरीर को नहीं, बल्कि उनकी उम्मीदों और सपनों को भी तोड़ रही है। यह केवल उनकी सांसें नहीं, बल्कि उनके सपनों और संघर्षों को भी घेर रही है। ठंड ने उनकी कमाई को इस कदर जकड़ लिया है कि रोटी की तलाश अब उनके लिए एक बड़ी चुनौती बन गई है।
काशी की गलियों में सन्नाटा है। जिन अड़ियों पर चाय की गुफ्तगू और घाटों की चहल-पहल से भरी रहती थी, अब ठिठुरती हुई खामोशी से भर गई है। सड़कों पर सोने वाले लोग गुदड़ी में लिपटे, गठरी की मनिंद किसी तरह रातें काट रहे हैं। उनके चेहरों पर ठंड की लकीरें और संघर्ष की दास्तानें साफ देखी जा सकती हैं। सड़कों के किनारे सोते लोग ठंड की मार से कांपते हैं, लेकिन उनकी आंखों में जीने की एक जिद होती है और न जाने कौन सी अद्भुत जिजीविषा जो उन्हें हर सुबह फिर से इस जंग में उतरने के लिए तैयार कर देती है। शायद वही जिद, वही जिजीविषा जो उन्हें सर्द रातों में हर उस दर्द से लड़ने की ताकत देती है, जिसे मौसम और व्यवस्था ने मिलकर उन पर थोपा है।
कड़ाके की ठंड ने इन दिनों बनारसियों की ज़िंदगी को धुआं-धुआं कर दिया है। सुबह ओस की बूंदों ने ठंड को और खतरनाक बना दिया। ठंड का सितम ऐसा रहा कि लोग कंपकंपाते नजर आए। सड़कों पर पसरी ओस की परत ने जगह-जगह गीलापन फैला दिया, मानो खुद धरती भी ठंड से कांप रही हो। गंगा, जो हमेशा से बनारस की आत्मा रही है, इस बार धुंध की छतरी में चुपचाप लिपटी नजर आ रही है। धुंध की छतरी के नीचे, बिल्कुल खामोश। सुबह से लेकर शाम तक काशी कोहरे और धुंध की चादर में लिपटी हुई नजर आ रही। पिछले कई रोज से सुबह के सूरज का नामोनिशान नहीं दिख रहा।
बेरहम ठंड का कहर, महज एक मौसम नहीं है; यह एक कहानी है उन लोगों की, जिनका जीवन खुले आसमान के नीचे ठिठुरते हुए चलता है। यह उन संघर्षों की कहानी है, जो हर रोज़ बनारस की सड़कों से गुजरती है। दरअसल, यह संघर्षों की ऐसी दास्तान है, जो हर रोज़ काशी की गलियों और आंचलिक इलाकों में छान-छप्पर डालकर रहने वाले लोगों के दिलों में लिखी जाती है। यह उन ख्वाहिशों की दास्तान है, जो ठंड के बावजूद गर्माहट की तलाश में भटकती हैं।
मौसम की इस बेरुखी के बीच सरकारी मशीनरी की लापरवाही इसे और ज्यादा दर्दनाक बना रही है। ठंड से बचाव के नाम पर जो इंतजाम होने चाहिए थे, वे कागजों में दम तोड़ते नजर आ रहे हैं। जिन अलावों का वादा किया गया था, वे सिर्फ सरकारी फाइलों में जल रहे हैं। रैन बसेरे, जो गरीबों और बेघरों के लिए ठंड से राहत का सहारा बनने चाहिए थे, अब केवल शो-पीस बनकर रह गए हैं। सड़कों पर सोने वाले लोग ठिठुरते हुए, उम्मीद भरी आंखों से एक बेहतर व्यवस्था का इंतजार कर रहे हैं।
हर ठिठुरती रात के साथ उम्मीदें भी ठंड की मार से घायल हो रही हैं। लेकिन इन सबके बीच, गंगा की लहरों की तरह, बनारस के लोग अपने संघर्ष से जूझ रहे हैं। शायद अगली सुबह धुंध का पर्दा हटे और सूरज की किरणें इस जमी हुई जिंदगी को फिर से सजीव बना दें। काशी का हर आम आदमी अभी भी अपनी जिजीविषा के साथ खड़ा है, क्योंकि उसे यकीन है कि धुंध चाहे जितनी गहरी हो, सूरज की पहली किरण इसे चीर ही देगी।
सहसे अहम सवाल यह है कि क्या यह कड़ाके की ठंड और नकाब सरीखी धुंध फकत मौसम की वजह से है? या यह उस लापरवाह व्यवस्था का प्रतीक है, जो केवल कागजों पर अलाव जलाती है और रैन बसेरों को शो-पीस बना देती है? गरीबों की ठिठुरन सरकार की न किसी फाइल में नहीं देखी जा सकती है और न ही उनकी कंपकंपी किसी रिपोर्ट में दर्ज होती है।
गरीब और बेसहारा लोग ठंड में ठिठुरते हुए एक बेहतर व्यवस्था की उम्मीद लगाए बैठे हैं। साथ ही उस भ्रष्ट सरकारी मशीनरी से भी लड़ रहे हैं, जिनकी वीबियां बनारस आती हैं और इस शहर के नामचीन दुकानों से बनारसी साड़ियां और महंगे तोहफे बटोरकर ले जाया करती हैं। यकीन कीजिए ये साड़ियां और ये तोहफे तो गरीबों के ठंड के पैसे से ही आते हैं! जितनी कड़ाके की ठंड, उतना महंगा तोहफा। यह सब नगरों का विकास करने वाले अफसरों की कमीशनखोरी का ही तो खेल है।
बनारस के हर गरीब और बेसहारा इंसान की नजरें अब देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर टिकी हैं। मोदी जी, इस शहर के सांसद भी है। लोग-बाग यह सवाल कर रहे हैं—क्या इस ठंड से बचाने के लिए कोई हाथ आगे आएगा? गरीब, जो गंगा की तरह अपनी बहती हुई जिंदगी में ठंड, धुंध और लापरवाही की मार झेलते हैं, क्या उन्हें राहत देने कोई आगे बढ़ेगा? इन सवालों का जवाब न तो नौकरशाही के पास है और न ही नेताओं के पास, जो हर चुनाव में वादों का पहाड़ खड़ा कर देते हैं।