जनाब! खजाना ढूंढने को हो रही सड़कों की खोदाई

जनाब! खजाना ढूंढने को हो रही सड़कों की खोदाई

वरिष्ठ पत्रकार विजय विनीत का चर्चित कालम

इन दिनों

होली खेलने के लिए स्पेन में लोग एक दिन सड़कों पर लाखों टन टमाटर बिछाते हैं। एक दूसरे पर टमाटरों के निशाने लगाते हैं। गड्ढे न होने के कारण सड़कें चिकनी हो जाती हैं और लालू सरीखे पर्यटक के मन भाती हैं। काश काशी में भी ऐसी होली होती तो कम से कम गड्ढे टमाटरों से भर जाते। बनारस में टमाटर का दाम आसमान छू रहा है। काशी में गड्ढों को पाटने के लिए मिट्टी और गिट्टी ही नसीब नहीं हो रही है तो सड़कों को चिकना बनाने के लिए टमाटर आएंगे भी तो कहां से? हमारे लिए तो ताजा ही नहीं, सड़ा टमाटर भी गुणकारी है। अपने शहर में जो नेता और कवि जितने सड़े-गले टमाटर खाता है वह उतनी ही बड़ी हस्ती बन जाता है। इन नेताओं को न तो टमाटरों के आसमान छूते दाम की चिंता रहती है और न ही गड्ढों की।

कुछ रोज पहले की ही बात है। पड़ोसी मगरू चचा घर आए और बताया कि शहर में आना-जाना दूभर हो गया है। जहां देखिए, सड़क खुदी दिखती है। पूछा? दूरदर्शी बताओ, ‘सरकारी मशीनरी साल भर खामोश रहती है और बारिश के दिनों में सड़कों को खोदने के लिए क्यों पिल पड़ती है?’ मगरू चचा को समझाया कि बनारस के सांसद नरेंद्र मोदी पीएम हैं। सरकारी मशीनरी विकास पर उतारू है, तो यह सब चलेगा ही। विकास के गड्ढे अभी थोड़े गहरे हुए हैं। कुछ रोज इंतजार कीजिए। शहर में यह फर्क करना मुश्किल हो जाएगा कि सड़कों पर गड्ढा है या गड्ढे में सड़कें हैं। लोग नगर निगम को भले ही ‘नरक निगम’ कहें, क्या फर्क पड़ता है। नगर आयुक्त और मेयर को शहर के विकास की इतनी चिंता है कि गड्ढे पर गड्ढे खोदवाते जा रहे हैं। इनकी मेहरबानी कमाल की है। मगरू चचा अब समझ गए हैं कि कुछ रोज में शहर में इतने सारे गड्डे होंगे कि लोग गिरें तो बाहर ही न निकल पाएं। अपने नगर निगम के अफसर इतना कर रहे हैं तो लोगों का कर्तव्य बनता है कि गड्ढों से बचकर चलें। वैसे भी अपने देश के नागरिक शास्त्र की पोथी में केवल कर्तव्यों का चैप्टर ही शामिल है। नागरिक के अधिकारों वाले पन्ने कोरे ही छूट गए हैं या चिपके ही रह गए हैं।

एक रोज मार्निंग वाक पर निकले मगरू चचा एक सज्जन को पकड़कर ले आए और बोले, ‘दूरदर्शी देखो यही जनाब हैं जो पिछले दो महीने से कंपनी गार्डन के पास गड्ढे खोद रहे हैं। सुबह-शाम गड्ढा खोदने और पाटने का काम करते हैं। इन भाई साहब से ही सीधा क्यों न पूछ लिया जाए वह ऐसा करते क्यों हैं?’ मगरू चचा के साथ आए सज्जन ने अपना परिचय दिया और कहा हमें नहीं पता साब। हमें तो गैंती-फावड़ा थमा दिया गया है और बता दिया गया है कि जब चाहो खोदने बैठ जाओ और जब चाहो पाट दो। साब, सरकार का आर्डर है। कमिश्नर और कलेक्टर को दिखाने के लिए हम कहीं भी सड़क खोदना शुरू कर देते  हैं। नागरिक बवाल करते हैं तो पाटने में जुट जाते हैं। आप साहब लोगों से ही क्यों नहीं पूछ लेते? अपने शहर में पाइप तो तीन-चार बार पड़ चुकी है। कभी पानी की तो कभी सीवर की और कभी केबल और एलपीजी गैस की। सड़कों के नीचे कितनी पाइपें पड़ चुकी हैं कि कोई माई का लाल पता ही नहीं कर सकता।

 

दीन-हीन हालत में खड़े गड्ढा खोदने वाले सज्जन ने मंगरू चचा से अपना पिंड छुड़ाने के लिए दूरदर्शी के पांव पकड़ लिए। कहा, ‘हुजूर-हमें तो नौकरी बचानी है। हम तो शहर खोदकर ही छोड़ेंगे। सरकार को जो डालना है, डालती रहेगी। मुझे नहीं पता साब, कि कहां-कहां क्या-क्या डालना है। हमें सरकारी काम का लंबा अनुभव है। पूरी जिंदगी तो काशी की सड़कों को खोदते निकाली है।’

 

दूरदर्शी को लगा कि इन दिनों शहर में कई दूरंदेशी अफसर तैनात हैं। शायद किसी ने तय किया हो कि पहले से खोद कर रखो, क्योंकि सरकार तो हर सड़क को खुदवाती ही है। अब वह सरकार के आर्डर की प्रतीक्षा करेगा। सरकार के मन में, जब जो भी पाइप, केबल, तार आदि डालने का हौल उठेगा तो गड्ढा तैयार मिलेगा। सरकार को भी तो वाहवाही चाहिए और साहब लोगों का सीआर बढ़िया हो। इसके लिए अफसरों में ऐसे ही नजरिए की जरुरत होती है। दूरदर्शी के मन में कई दिनों से हौल उठ रहा है कि अभी तो मेट्रो परियोजना शुरू बना रही है, फिर  एडवांस में जगह-जगह खोदाई क्यों शुरू हो गई?  पांडेयपुर के पंचकोसी रोड से लंका तक।

एक बार मन में यह बात भी उभरी कि हो सकता है कि अभी केवल गड्ढे खोदने का बजट मंजूर होकर आया हो? किस गड्ढे में क्या डालना है, इसकी फाइल हो सकता है, कहीं न कहीं चल रही हो। अगर फाइल गुम भी हो जाए तो क्या फर्क पड़ेगा। कभी इन गड्ढों में कुछ डाल ही दिया जाएगा। मन में दूसरी बात उभरी कि हो सकता है कि गड्ढों को पूरने का बजट लेने के लिए शहर भर में सड़कों को खोदने की मुहिम चलाई गई हो। बनारस के ‘अज्ञानी’ लोगों को क्या पता कि सरकार कितनी फिक्रमंद है और विकास के नाम पर क्या नहीं कर सकती। तीसरी बात दूरदर्शी के मन में यह भी आई कि हो सकता है कि किसी अफसर को स्वप्न आया हो कि सड़कों को खोदवाने पर सोने-चांदी की मोहरों से भरा कुंडा निकल सकता है। उसे ढूंढवाने के चक्कर में शहर की सड़कों की खोदाई कराई जा रही हो?

शंका निवारण करने के लिए दूरदर्शी ने मगरू चचा के साथ आए सज्जन ने पूछा, ‘सच-सच बताओ कुछ छिपा तो नहीं रहे हो? अफसर कुछ डालने की जगह यहां कुछ निकालने के चक्कर में सड़कों को तो खुदवा नहीं रहे हैं?’ सड़क खोदने वाला कुछ बोला नहीं, सिर्फ ना की मुद्रा में सिर हिलाया।

 

मंगरू चचा कुछ पूछते इससे पहले ही दूरदर्शी ने बता दिया कि आदमी ठीक जगह, सही से खोदे तो उसे कुछ भी मिल सकता है। खजाना मिल जाए, तेल निकल आए, पानी तो आ ही सकता है। और अपना शहर तो इतना पुराना है कि जहां खोदो, नीचे से कोई नई सभ्यता निकल सकती है। सब खोदने वाले पर निर्भर है। नीचे बड़ी सभ्यताएं गड़ी हैं। गड्ढा खोदने वाले सज्जन को सलाह दी कि गैंती मारने से पहले देख लिया करो कि किसी पुरानी सभ्यता को चोट पहुंची तो सरकार बुरा मान सकती है। सरकार का मानना है कि हमारी असली सभ्यताएं तो दफन हो गई थीं। अगले साल चुनाव होने वाला है। हो सकता है सरकार अब सड़क खोद कर ही देखना चाहती हो कि सभ्यताएं कहां-कहां दफन हैं जिसे चुनावी मुद्दा बनाया जा सकता है।

और अंत में—

मिली है खाक में इज्जत गई तालीम गड्ढे में।

जुदा होकर हमारे से कलम डस्टर समझता है।

बड़े उस्ताद बनते थे चले थे राह दिखलाने

जमाना ही हमें अब राह की ठोकर समझता है।

Hi

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