गाजीपुर का नोनरा गांव, जहां मिट्टी ने एक योद्धा को खो दिया…!

एक युग पुरुष और जीने की कला के साधक थे अंबिका प्रसाद पांडेय
✍️ विजय विनीत, वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक
शक तो यूं ही लगा था… जैसे किसी अखाड़े में अचानक शेर की दहाड़ थम जाए, जैसे कोई बाज़ू थककर जमीन से जा लगे…पर कोई माने नहीं, क्योंकि वो थे पहलवान अंबिका प्रसाद पांडेय। और सच में… वो चले गए।
एक युग पुरुष का जाना केवल एक इंसान का जाना नहीं है ये एक परंपरा का अंत है और एक विचारधारा की विदाई है। 95 वर्षों तक लगातार ज़िंदगी को कुश्ती की तरह जीने वाले इस शख्स ने आखिरी समय तक हार नहीं मानी। यहां तक कि जब धड़कनें थम गईं, तब भी उनकी रूह दो दिन तक शरीर में डटी रही-बोलती रही, मुस्कराती रही।

अंबिका प्रसाद पांडेय पहलवान थे। शरीर से भी, और आत्मा से भी। उन्होंने जीवन को एक अखाड़े की तरह जिया, जहां हर दिन एक दांव था, हर सांस एक अभ्यास। योग उनके जीवन का आधार था। उन्होंने जीवनभर किसी अस्पताल का आसरा नहीं लिया, क्योंकि उनका डॉक्टर उनका योग था, उनकी दवा उनकी दिनचर्या,और उनका इलाज उनका अनुशासन। प्राणायाम, व्यायाम और संयम ने उन्हें 95 वर्ष की उम्र तक बीमारियों से दूर रखा। जब शरीर ने साथ छोड़ना शुरू किया, तब भी उन्होंने मृत्यु को हार मानने नहीं दी। उनकी मृत्यु भी उतनी ही विलक्षण थी जितना उनका जीवन।
उनका जीवन कुश्ती से बना था। वो मिट्टी से उठे थे और मिट्टी में ही अपना समर्पण दे गए। उनका अखाड़ा एक ऐसा स्थान था जहां दांव-पेंच सिखाने से पहले इंसान को इंसान बनना सिखाया जाता था। जात-पात, ऊंच-नीच, भेदभाव उनके अखाड़े में घुस ही नहीं पाते थे, क्योंकि उनके लिए शरीर की ताकत से ज्यादा जरूरी थी दिल की सफाई।
गांव-गांव, मेले-दंगलों में उनके शिष्यों की पहचान सिर्फ उनके ‘पेंच’ से नहीं, बल्कि उनके व्यवहार और अनुशासन से होती थी। आज भी जिन पहलवानों ने उनके सानिध्य में कसरत की है, वो कहते हैं, “बाबूजी ने सिर्फ कुश्ती नहीं सिखाई, उन्होंने जीना सिखाया।”
धड़कनें रुकी थीं, पर आत्मा ज़िंदा थी
अंबिका जी के जीवन की अंतिम कहानी किसी महाकाव्य से कम नहीं। डॉक्टरों ने कहा कि उनके शरीर में न कोई धड़कन थी, न रक्तचाप, न तापमान। सब कुछ मृत शरीर जैसा था। लेकिन फिर भी वो दो दिन तक बिल्कुल होश में रहे, बात करते रहे। मानो मृत्यु से एक मौन समझौता कर लिया हो, “अभी नहीं”। यह चमत्कार नहीं था, यह उनके योग और आत्मबल का फल था। एक ऐसा साक्ष्य, जो विज्ञान की सीमाओं से परे था। पर सवाल था कि फिर ये बात कैसे कर रहे हैं? ये मुस्कुरा कैसे रहे हैं? ऐसा पहली बार देखा गया कि medically dead होते हुए भी कोई आत्मा दो दिन तक शरीर में रुकी रही जैसे ज़िंदगी कह रही हो, “मैं अभी हार मानने वाली नहीं।”

एक पिता की महानता तब और ऊंची हो जाती है, जब उसका बेटा उसे कंधे से नहीं, दिल से थाम ले। जयप्रकाश पांडेय ने अपने पिता अंबिका प्रसाद पांडेय के लिए वही किया। महज दसवीं कक्षा में पढ़ते हुए ही उन्होंने पूरे परिवार की जिम्मेदारी उठा ली थी। जब उम्र किताबों में खो जाने की थी, उन्होंने अपने पिता के जीवन को संवारने का बीड़ा उठाया।
अंबिका प्रसाद पांडेय को जीवन में कभी किसी चिंता ने नहीं छुआ, क्योंकि उनका बेटा उनके लिए ढाल बन चुका था। यह रिश्ता केवल जिम्मेदारी का नहीं था। यह आत्मीयता का, मौन विश्वास का और गहराई से भरे संवाद का रिश्ता था। पिता मुस्कराते थे तो बेटे की आंखों में संतोष झलकता था।

पहलवान अंबिका प्रसाद पांडेय अब हमारे बीच नहीं रहे, लेकिन उनके जाने के बाद भी उनकी विरासत, उनके संस्कार और उनके जीवन के आदर्श आज भी जीवित हैं। उनके भरे-पूरे परिवार में, उनके हर उस संतान में, जो उनके स्वभाव, संघर्ष और सादगी को आज भी अपने जीवन में जी रही है। उनके दो बेटे जयप्रकाश पांडेय और सत्यप्रकाश पांडेय हैं। इनके पुत्र जयप्रकाश अपने पिता की परछाईं की तरह आज भी परिवार को एकजुट रखे हुए हैं।
छह पौत्र रिंकू, अजय, अमित, सोनू, विक्की और गोलू और दो पोतियां-साधना व आराधना अंबिका जी की गोद में पले-बढ़े, उनके संस्कारों में रचे-बसे हैं। उनका आशीर्वाद इन सभी की आंखों में अब भी चमकता है। परिवार की अगली पीढ़ी में परपोती निशू और कलश, परपोते हरिओम, पार्थ, रुद्र और ओरेन भी हैं। ये वे कोंपलें हैं जिनमें अंबिका जी की मुस्कान और उनकी दृढ़ता की छवि साफ दिखाई देती है। हरिओम से उनका गहरा जुड़ाव था। उन्होंने अपने पोते अमित पांडेय को अपने हाथों से दांव-पेंच सिखाया, अखाड़े की मिट्टी में तपाया और इतना मजबूत बनाया कि वह देश की सेना में भर्ती हो सके।

फिलहाल अमित सेना से सेवानिवृत्त हो चुके हैं, लेकिन उनके भीतर जो अनुशासन, जो समर्पण है, वह दादा अंबिका प्रसाद पांडेय की ही देन है। अंबिका जी चले गए, लेकिन उन्होंने एक ऐसा वटवृक्ष खड़ा किया है जिसकी छाया में कई पीढ़ियां पनप रही हैं। उनका जाना केवल एक व्यक्ति का जाना नहीं, एक युग का अवसान है। पर उनका परिवार, उनकी परंपरा, उनकी शिक्षा और उनके आदर्श उन्हें अमर बना देते हैं।
रिश्तों ने ओढ़ ली चुप्पी
अंबिका प्रसाद पांडेय के बड़े पोते रिंकू पांडेय उनके लिए एक मजबूत सहारा थे। रिंकू में उन्हें अपनी मेहनत और आत्मबल की झलक दिखाई देती थी। वो जैसे जीवन के अगले अध्याय को अपने भीतर संजोए हुए थे। पर अगर किसी ने उनके मन के सबसे कोमल भावों को जिया था, तो वो थी उनकी छोटी पोती आराधना। आराधना उनके लिए कोई साधारण पोती नहीं थी। वो उनकी आत्मा का हिस्सा थी। यूं तो उनका अपनी सभी पोतियों से उनका गहरा जुड़ाव था और वो सभी को बहुत मानते थे। सिर्फ परिवार ही नहीं, पास-पड़़ोस की बेटियों पर भी वो अपना स्नेह न्योछावर करते थे।

अंबिका जी का उनकी पोती आराधना से भाव और भावुकता का रिश्ता था। दोनों के बीच एक ऐसा मौन संवाद था, जहां शब्दों की जरूरत नहीं होती थी। जब दादा जी बैठते थे, आराधना चुपचाप पास में आ बैठती थी। ना कुछ मांगती थी, ना कहती थी। बस उनके होने से ही उसकी दुनिया संपूर्ण हो जाती थी। आज जब दादा जी नहीं हैं, आराधना की दुनिया सूनी हो गई है। वो कुछ बोल नहीं रही, कुछ ठीक से खा नहीं रही, जैसे उसकी आत्मा का कोई हिस्सा हमेशा के लिए चला गया हो।
दरअसल, अंबिका प्रसाद पांडेय का शरीर मिट्टी था, तो उनकी आत्मा का एक हिस्सा पोती आराधना में बसता था। इस रिश्ते को परिभाषित करना मुश्किल है। वे दो आत्माएं थीं, जो एक-दूसरे की गहराइयों को बिना बोले समझ जाती थीं। आराधना को जब पहली बार खबर लगी कि ‘दादा जी नहीं रहे’, तो जैसे उनके भीतर कुछ टूट गया। ना भूख रह गई, ना आवाज़। उसकी आंखें तो नम थीं ही, पर उसकी आत्मा जैसे भीतर से चुप हो गई।
वो कुछ कह नहीं पा रही, लेकिन उसका सारा मौन ये बता रहा है कि उसके जीवन की सबसे बड़ी ताकत चली गई। अब उन्हें कोई ये कहने वाला नहीं कि, “बेटी, डर मत, अखाड़ा जीतने के लिए होता है।” अब वो आंगन खामोश है, जहां बैठकर दादा जी की गोद में वो कहानियां सुनती थी। आज आराधना की आंखें पूछ रही हैं, “दादाजी, आपने मुझे बताया क्यों नहीं कि आप चुपके से चले जाओगे?”

गंगा की लहरों ने उन्हें विदा दी… चुपचाप
अंबिका प्रसाद पांडेय का पार्थिव शरीर जौहरगंज गंगातट पर पहुंचा, तो वहां मौजूद हर व्यक्ति की आंखें नम थीं, लेकिन सीना गर्व से भरा था। यह कोई आम अंतिम यात्रा नहीं थी। यह एक योद्धा की विदाई थी। छोटे पुत्र सत्यप्रकाश पांडेय ने उन्हें मुखाग्नि दी, और जैसे ही अग्नि की लपटें उठीं, पूरे नोनरा गांव ने सिर झुका लिया, क्योंकि वो सिर्फ एक व्यक्ति नहीं, गांव की पहचान थे।
अब सुबह अखाड़ा खाली रहेगा, अब मिट्टी में वो कड़कती आवाज़ नहीं गूंजेगी, “कमर कसो, पेंच मजबूत रखो…।” अब वो मुस्कुराता चेहरा नहीं दिखेगा, लेकिन जब भी कोई युवा मिट्टी में गिरकर उठेगा, जब भी कोई लड़का कहेगा, “मैं पहलवान बनना चाहता हूं,” तो वो वहां होंगे। कहीं आसपास, मिट्टी की खुशबू में घुले हुए। और जब सच सामने आया, तो आंखें भर आईं। लेकिन हृदय ने कहा, “वो कहीं नहीं गए, बस शरीर छोड़कर अखाड़े की आत्मा बन गए हैं।”
अंत में भी अधूरे नहीं थे अंबिका पांडेय
दरअसल, अंबिका प्रसाद पांडेय मंचों के आदमी नहीं थे, उनका अखाड़ा ज़मीन पर था, जहां उन्होंने पीढ़ियों को संस्कार और आत्मबल सिखाया। उनकी उपस्थिति नादानियों को दिशा देती थी, और उनकी मुस्कान जीवन को सहारा। आज जब वो चले गए हैं, उनकी कमी केवल एक इंसान की नहीं है. एक युग के अंत की है। लेकिन उनका जीवन अधूरा नहीं था।
अंबिका जी एक ग्रंथ की तरह पूर्ण थे, जिसे उनके पुत्र जयप्रकाश ने सेवा से पढ़ा, रिंकू ने गौरव से जिया और आराधना ने आत्मा से महसूस किया। नमन उस युग पुरुष को जिन्होंने जीने की सच्ची परिभाषा अपने जीवन से दी। वह गोलोकवासी हो गए हैं, लेकिन हम सबके भीतर कहीं अब भी जिंदा हैं…!!